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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।।32।।


परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ।।32।।

भगवान् का यह मत जिसके अनुसार व्यक्ति को निराशी और निर्मम होकर तथा अपना ध्यान अध्यात्मचेतस होकर अपने सभी काम करने चाहिए, इसमें किस प्रकार के मनुष्य दोष देख सकते हैं, यह विचार करने की बात है। हम अधिकांशतः धन, यश अथवा सफलता की आशा से कार्य करते हैं, और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये सभी किसी साधारण अथवा कठिन कार्य को करने के लिए प्रोत्साहन का कार्य करते हैं। ऐसा सभ्य समाज में संभवतः आरंभ से ही होता आ रहा है। हम सभी ने बचपन से यही सीखा है कि धन अर्जित करने का प्रयत्न करना चाहिए, यशस्वी जीवन की आकांक्षा तो बड़े सम्मान की बात मानी जाती है, और असफलता किसे भाती है!
 
इसके अतिरिक्त अत्यधिक प्रयासों से अर्जित किये गये धन अथवा यश से व्यक्ति इतना अधिक जुड़ जाता है कि उसका इन में मेरा धन, मुझे मिला यश अथवा मेरी सफलताएँ ऐसा भाव बहुत ही प्रबल हो जाता है।

परंतु भगवान् तो स्पष्ट कह रहे हैं जो मनुष्य इस प्रकार के भाव न रखते हुए निराशी निर्मम होकर कार्य करता है, वही चिंतारूपी ज्वर से छूट पाता है। यहाँ विशेष ध्यान देने की बात यह है कि भगवान् यह नहीं कहते कि व्यक्ति धन, यश अथवा सफलता से दूर भागना चाहिए। बल्कि वे कहते हैं कि अध्यात्मकर्मचेतसा द्वारा किया गया कर्म किसी प्रकार की चिंतारूपी ज्वर का कारण नहीं बनता। परंतु कामनावश किये गये कर्म के लिए भगवान् स्पष्ट कहते कि ऐसा व्यक्ति अनेक प्रकार के ज्ञानों को धारण करते हुए भी उनमें मोहित हुआ रहता है और अंततः स्वयं नष्ट हो जाता है।

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