मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3महर्षि वेदव्यास
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सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति।।33।।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति।।33।।
सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने
स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुसार
चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा?।।33।।
भगवान् ने जो अपना पक्ष पिछले श्लोकों में रखा है, उसमें अन्तर्निहित कठिनाई को भी वे जानते हैं। इसीलिए सभी मनुष्यों से सहानुभूति रखते हुए वे कहते हैं। मनुष्यों की तो बात ही क्या है, सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। प्रकृति का अर्थ है विभिन्न प्रकारों से की गई कृति। अर्थात् यदि इसे साधारण अर्थ में समझें तो जीवन के विकास के पिरामि़ में जल, वनस्पति, शाकाहारी प्राणी और मांसाहारी प्राणी आते हैं। जल का स्वभाव है जिनके संपर्क में आये उन्हें गीला करे। ऊंचाई से नीचे की ओर बहे आदि। वनस्पति का स्वभाव है कि जल, उर्वरा और प्रकाश के संपर्क में आकर विभिन्न रूपों में प्रकट हो और उपयुक्त स्थलों में धरती पर फैल जाये। उदाहरण के लिए मरुस्थ्लों और अत्यंत ठण्डे प्रदेशों में वनस्पति का अधिक प्रसार नहीं होता। इसी प्रकार शाकाहारू व्यक्ति का स्वभाव है, जल और वनस्पति को भोजन के रूप में ग्रहण करके अपना जीवन यापन करना। इसी प्रकार माँसाहारियों का स्वभाव है, शाकाहारी प्राणियों को भोजन के रूप में ग्रहण करना। अब यदि मनुष्यों के बारे में विचार करें तो समझ में आता है कि उनमें भिन्न-भिन्न स्वभाव अर्थात् प्रकृति के लोग होते हैं। किन्ही का अधिकांश ध्यान भोजन में लगा रहता है, तो किन्ही का अधिकांश ध्यान अपने जीवन को सुरक्षित बनाए रखने में और उसके लिए सुख-सुविधा के प्रबंध में लगा रहता है। वहीं कुछ लोग धन में, कुछ लोग राजनीति में और कुछ लोग ज्ञानानुसंधान करने में लगे रहते हैं। ये सभी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते रहते हैं। साधारणतः इन सभी में ज्ञानानुसंधानियों को सबसे उच्च स्तर पर समझा जाता है। भगवान् कहते हैं कि प्रकृति में सभी स्वभाव के वश होकर अपने कार्य करते हैं, इसलिए कोई हठ करके बलात् निराशी और निर्मम नहीं बन सकता है। इसके लिए अपनी प्रकृति को समझते हुए शनैः शनैः आत्मशोधन के द्वारा ही वह अपना मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
भगवान् ने जो अपना पक्ष पिछले श्लोकों में रखा है, उसमें अन्तर्निहित कठिनाई को भी वे जानते हैं। इसीलिए सभी मनुष्यों से सहानुभूति रखते हुए वे कहते हैं। मनुष्यों की तो बात ही क्या है, सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। प्रकृति का अर्थ है विभिन्न प्रकारों से की गई कृति। अर्थात् यदि इसे साधारण अर्थ में समझें तो जीवन के विकास के पिरामि़ में जल, वनस्पति, शाकाहारी प्राणी और मांसाहारी प्राणी आते हैं। जल का स्वभाव है जिनके संपर्क में आये उन्हें गीला करे। ऊंचाई से नीचे की ओर बहे आदि। वनस्पति का स्वभाव है कि जल, उर्वरा और प्रकाश के संपर्क में आकर विभिन्न रूपों में प्रकट हो और उपयुक्त स्थलों में धरती पर फैल जाये। उदाहरण के लिए मरुस्थ्लों और अत्यंत ठण्डे प्रदेशों में वनस्पति का अधिक प्रसार नहीं होता। इसी प्रकार शाकाहारू व्यक्ति का स्वभाव है, जल और वनस्पति को भोजन के रूप में ग्रहण करके अपना जीवन यापन करना। इसी प्रकार माँसाहारियों का स्वभाव है, शाकाहारी प्राणियों को भोजन के रूप में ग्रहण करना। अब यदि मनुष्यों के बारे में विचार करें तो समझ में आता है कि उनमें भिन्न-भिन्न स्वभाव अर्थात् प्रकृति के लोग होते हैं। किन्ही का अधिकांश ध्यान भोजन में लगा रहता है, तो किन्ही का अधिकांश ध्यान अपने जीवन को सुरक्षित बनाए रखने में और उसके लिए सुख-सुविधा के प्रबंध में लगा रहता है। वहीं कुछ लोग धन में, कुछ लोग राजनीति में और कुछ लोग ज्ञानानुसंधान करने में लगे रहते हैं। ये सभी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते रहते हैं। साधारणतः इन सभी में ज्ञानानुसंधानियों को सबसे उच्च स्तर पर समझा जाता है। भगवान् कहते हैं कि प्रकृति में सभी स्वभाव के वश होकर अपने कार्य करते हैं, इसलिए कोई हठ करके बलात् निराशी और निर्मम नहीं बन सकता है। इसके लिए अपनी प्रकृति को समझते हुए शनैः शनैः आत्मशोधन के द्वारा ही वह अपना मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
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