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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।38।।


जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढक जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है।।38।।

कामनापूर्ति में व्यवधान के अतिरिक्त काम का एक और अधिक गंभीर दुष्प्रभाव है। जिस प्रकार यदि लकड़ियों को जलाकर अग्नि प्रज्वलित की जा रही हो और लकड़ियाँ ठीक से सूखी न हों अथवा किसी अन्य कारण से ठीक से जल न रहीं हों तो उनमें से अग्नि का प्रकाश और ताप निकलने की अपेक्षा धुआँ निलकने लगता है। इस धुँए के कारण अग्नि न तो ठीक से ताप दे पाती है और न ही प्रकाश, इस प्रकार हमें अग्नि से मनोवांछित फल नहीं मिल पाता है। इसी प्रकार दर्पण में यदि धूल अथवा मैल हो तो प्रतिबिम्ब स्पष्ट नहीं दिखता है। गर्भ में रहने वाला बच्चा जेर अथवा झिल्ली से ढँका रहता है। उसी प्रकार कामनाओं से ज्ञान ढंका रहता है।

यहाँ विचार करने की वस्तु यह है कि भगवान् किस ज्ञान की बात कर रहे हैं? जीवन धारण करने के उपरांत जब तक मनुष्य कुछ समझने योग्य भी हो पाता है, तब तत्त्वज्ञान का मार्ग न पकड़कर वह कामनाओँ के जंजाल में उलझा रह जाता है। ये कामनाएँ अग्नि के ऊपर धुएँ की तरह छायी रहती हैं और अज्ञान का आवरण जीव को आवृत्त किये रहता है। इस प्रकार अज्ञान के धुएँ से हमारा वास्तविक स्वरूप हमसे छुपा रहता है।

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