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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।39।।


और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होनेवाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है।।39।।

भगवान पुनः कामनाओं की तुलना अग्नि अर्थात् अनलम् से करते हैं। पिछले श्लोक में भगवान् ने कामनाओँ को महाशन (जिसका पेट कभी न भरे) के समान बताया था। अब अपनी बात पर अधिक बल देते हुए कामनाओं को अग्नि के समान बताते हैं। अग्नि का एक नाम अनल भी है, अनल शब्द हिन्दी में संस्कृत के अनलम् से आया है। अलम का अर्थ होता है जिसका अंत हो, या कहीं समाप्ति हो, इस प्रकार अनलम् का अर्थ हुआ जो कि अंतहीन हो। हम सभी जानते हैं कि जब तक अग्नि को आक्सीजन मिलती रहती है, वह धधकती रहती है और जो कुछ भी उसके मार्ग में आता है उसे जलाती जाती है। इस प्रकार जितना भी जले अग्नि स्वतः रुकती नहीं है। अग्नि के इस स्वभाव के कारण ही भगवान् कामनाओँ की तुलना धधकती और सतत् जलती रहने वाली अग्नि से करते हैं।

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