मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3महर्षि वेदव्यास
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इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।।
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि - ये सब इसके वासस्थान कहे जाते
हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित
करके जीवात्मा को मोहित करता है।।40।।
प्रश्न उठता है कि इच्छाएँ अथवा कामनाएँ कैसे उत्पन्न होती है? कहाँ रहती हैं? कैसे पोषित होती हैं? मनुष्य के लिए बाह्य जगत् से व्यवहार का साधन इंद्रियाँ होती है। कामनाएँ सभी इंद्रियों के अंदर स्थित होकर उन्हें प्रभावित करती है। जीवन के साधारण कार्य कलापों जैसे भोजन ग्रह्ण करना, साफ-सफाई रखना और अपनी शरीर की सुरक्षा रखना इत्यादि के अतिरिक्त हम इंद्रियों संबंधी किसी भी कार्य में जब प्रवृत्त होते हैं, तो उसका कारण उसके प्रति कोई न कोई कामना ही होती है। इंद्रियों से स्फुरणा अथवा प्रेरणा लेकर व्यक्ति इन कामनाओँ का बारम्बार मनन करता है। इस प्रकार निरंतर पुनरावृत्ति से कामनाएँ दृढ़ होती जाती हैं। इस प्रकार इंद्रियों से स्फुरित हुआ मन अपनी बात को मनवाने के लिए बुद्धि का उपयोग करता है और इन कामनाओं को उचित ठहराने के तर्क प्रस्तुत करता है। यह चक्र जीवन के आरंभ में एक बच्चे से लेकर जीवन के अंत में एक वृद्ध व्यक्ति तक अनवरत् चलता रहता है। काम का आवरण अथवा जाला इतना सशक्त और गहन है कि यह हमारे समस्त ज्ञान को सारे जीवन ढँके रहता है और हमें हमारे वास्तविक स्वरूप से वंचित रखता है।
प्रश्न उठता है कि इच्छाएँ अथवा कामनाएँ कैसे उत्पन्न होती है? कहाँ रहती हैं? कैसे पोषित होती हैं? मनुष्य के लिए बाह्य जगत् से व्यवहार का साधन इंद्रियाँ होती है। कामनाएँ सभी इंद्रियों के अंदर स्थित होकर उन्हें प्रभावित करती है। जीवन के साधारण कार्य कलापों जैसे भोजन ग्रह्ण करना, साफ-सफाई रखना और अपनी शरीर की सुरक्षा रखना इत्यादि के अतिरिक्त हम इंद्रियों संबंधी किसी भी कार्य में जब प्रवृत्त होते हैं, तो उसका कारण उसके प्रति कोई न कोई कामना ही होती है। इंद्रियों से स्फुरणा अथवा प्रेरणा लेकर व्यक्ति इन कामनाओँ का बारम्बार मनन करता है। इस प्रकार निरंतर पुनरावृत्ति से कामनाएँ दृढ़ होती जाती हैं। इस प्रकार इंद्रियों से स्फुरित हुआ मन अपनी बात को मनवाने के लिए बुद्धि का उपयोग करता है और इन कामनाओं को उचित ठहराने के तर्क प्रस्तुत करता है। यह चक्र जीवन के आरंभ में एक बच्चे से लेकर जीवन के अंत में एक वृद्ध व्यक्ति तक अनवरत् चलता रहता है। काम का आवरण अथवा जाला इतना सशक्त और गहन है कि यह हमारे समस्त ज्ञान को सारे जीवन ढँके रहता है और हमें हमारे वास्तविक स्वरूप से वंचित रखता है।
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