मूल्य रहित पुस्तकें >> श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3 श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3महर्षि वेदव्यास
|
10 पाठकों को प्रिय 23323 पाठक हैं |
(यह पुस्तक वेबसाइट पर पढ़ने के लिए उपलब्ध है।)
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।
इसलिये हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस
ज्ञान और विज्ञान का नाश करनेवाले महान् पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार
डाल।।41।।
भगवान् कहते हैं कि चूँकि काम का उद्भव इंद्रियों में होता है, इसलिए व्यक्ति इंद्रियों का व्यवहार करते समय इस बात का ध्यान रखे कि इंद्रिय व्यवहार में कामनाएँ नियंत्रित रहें। जीवन में वस्तु अथवा परिस्थितिवश कामनाएँ उत्पन्न होना चेतन मनुष्य के लिए एक स्वाभाविक स्थिति है, लेकिन इन कामनाओं के जाल में उलझ कर और उन्हीं की ऊहापोह में अपने ज्ञान तथा विज्ञान को सर्वथा भूल जाना मनुष्य की समस्याओं का कारण बनता है। इस समस्या से निपटने के लिए भगवान् कहते हैं कि मनुष्य को अपनी इंद्रियों को कामनाओं से मुक्त रखने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। काम अर्थात् वे इच्छाएँ जो कि बंधनकारी हो सकती है उनको हनन कर देना चाहिए। अन्यथा वे इच्छाएँ मनुष्य के ज्ञान का विनाश कर देती हैं।
भगवान् कहते हैं कि चूँकि काम का उद्भव इंद्रियों में होता है, इसलिए व्यक्ति इंद्रियों का व्यवहार करते समय इस बात का ध्यान रखे कि इंद्रिय व्यवहार में कामनाएँ नियंत्रित रहें। जीवन में वस्तु अथवा परिस्थितिवश कामनाएँ उत्पन्न होना चेतन मनुष्य के लिए एक स्वाभाविक स्थिति है, लेकिन इन कामनाओं के जाल में उलझ कर और उन्हीं की ऊहापोह में अपने ज्ञान तथा विज्ञान को सर्वथा भूल जाना मनुष्य की समस्याओं का कारण बनता है। इस समस्या से निपटने के लिए भगवान् कहते हैं कि मनुष्य को अपनी इंद्रियों को कामनाओं से मुक्त रखने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। काम अर्थात् वे इच्छाएँ जो कि बंधनकारी हो सकती है उनको हनन कर देना चाहिए। अन्यथा वे इच्छाएँ मनुष्य के ज्ञान का विनाश कर देती हैं।
|
लोगों की राय
No reviews for this book