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श्रीमद्भगवद्गीता भाग 3

महर्षि वेदव्यास

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :62
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 67
आईएसबीएन :00000000

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इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः।।42।।

इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म कहते हैं; इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है।।42।।

शरीर के अन्य अंगो जैसे हाथ-पैर, पेट, कंधा, छाती, पीठ इत्यादि अर्थात् इस स्थूल शरीर की अपेक्षाकृत, सभी इंद्रियाँ और उनकी कर्मेन्द्रियाँ अधिक प्रभावशाली होती है। उदाहरण के लिए आँखें धरती की सतह पर अधिक से अधिक 3 किमी की दूरी पर किसी वस्तु को साफ-साफ देख सकती हैं, परंतु अंतरिक्ष में उपस्थित 26 लाख प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित आकाश गंगा को देख सकती हैं। इसी प्रकार ध्वनि और गंध को भी दूर से अनुभव किया जा सकता है। परंतु त्वचा को जबतक स्पर्श न किया जाए तब तक कुछ अनुभव नहीं होता है, यहाँ तक कि गर्मी अथवा ठंड भी स्पर्श से ही अनुभव होते हैं। परंतु मन थोड़े-थोड़े क्षणों में अपना ध्यान बदलता रहता है। परंतु चंचल मन को भी साधने का कार्य यदि कोई कर सकता है तो वह बुद्धि ही है। इस प्रकार हमने देखा कि शरीर—मन—बुद्धि क्रमशः सूक्ष्म और शक्तिशाली हैं। परंतु बुद्धि की सीमाएँ जहाँ समाप्त हो जाती हैं, उनके परे भी आत्मा का साम्राज्य व्याप्त है। इस प्रकार मनुष्य के सामान्य व्यवहार और ज्ञान में आने वाली सभी वस्तुओं की अपेक्षाकृत आत्मा सबसे श्रेष्ठ और सूक्ष्म है।

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