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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
तेजकृष्ण डिस्पैच अपनी मेज के दराज में बन्द कर, उसे ताला लगा और ताली अपनी जेब में डाल बैड रूम का द्वार खोलने चला गया। वह बेयरा के चाय लाने की प्रतीक्षा करने लगा था।
आज प्रातः के अल्पाहार के उपरान्त वह अपने नित्य के काम पर चला गया। नज़ीर ने अपने माँ के नाम पत्र लिफाफे में बन्द कर उसे दे दिया था। प्रायः के अल्पाहार के उपरान्त वह दो दिन पूर्व लाए उपन्यास में एक उठाकर पढ़ने लगी।
उसे उपन्यास पढ़ते हुए दो घण्टे से ऊपर हो चुके थे। लगभग साढ़े ग्यारह बज गए थे कि टेलीफोन की घंटी बजी। वह विचार करती थी कि या तो यू० के० हाई कमिश्नर के कार्यालय से टेलीफोन आ सकता है अथवा पाकिस्तान के हाई कमिश्नर के कार्यालय से। उसका दूसरा विचार ठीक था। यह पाकिस्तान हाई कमिश्नर के कार्यालय से मियांअजीज़ अहमद बोल रहा था। जब बोलने वाले ने अपना नाम बताया तो नज़ीर ने कहा, ‘‘मैं नज़ीर बोल रही हूं। अंकल! क्या बात है?’’
‘‘आज मेरा तुमसे मिलने आने का विचार नहीं था। मगर अभी-अभी रावलपिण्डी से एक समाचार मिला है जो तुमसे सम्बन्ध रखता है। इस कारण मैं उसे तुम तक पुहंचाना आवश्यक समझता हूं।’’
‘‘तो आ जाइये।’’
‘‘तुम्हारे खाविन्द घर पर हैं अथवा नहीं?’’
‘‘नहीं! वह अपने काम पर गए हुए हैं। वह लंच के समय भी नहीं आयेंगे,’’
‘‘तब ठीक है। मैं लंच के समय आऊंगा और खाना तुम्हारे साथ ही खाऊंगा।’’
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