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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
परन्तु यह नीति कुछ सीमा तक ही सफल हो सकती थी। चीनियों ने तिब्बत लिया था सन् १९५० में और अब जा रहा था सन् १९६२। इन बारह वर्षों में अपनी दुर्बलता का अनुभव करने वाला प्रधान मन्त्री तो शक्ति संचय करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा सकता था। भारत सरकार का इस दिशा में ध्यान नहीं था। अपनी तैयारी की लम्बी-चौड़ी बातें करने के अतिरिक्त अवस्था यह थी कि चालीस मील की यात्रा के लिए बारह घण्टे लगे थे और मार्ग में छः सात स्थानों पर जीप को धकेल कर कठिन मार्ग पार किया गया था।
हवलदार से बातें खुल कर होने लगी थीं। जब तेजकृष्ण भी जीप को सड़क पर और नालों में से धकेलने में हवलदार का साथ देने लगा तो दोनों में सहभाव उत्पन्न हो गया और दिरांग पहुंचने तक दोनों ऐसे बातें करने लगे कि मानों बचपन के मित्र हैं। तेजकृष्ण ने कुछ अपनापन प्रकट करने के लिए बात आरम्भ की, ‘‘हवलदार साहब! क्या नाम है आपका?’’
‘‘कुलदीप शर्मा।’’
‘‘तो आप ब्राह्मण हैं?’’
‘‘जी।’’
‘विवाह किया है?’’
‘‘जी! दो सन्तान हैं।’’
‘‘कितनी बड़ी हैं?’’
‘‘लड़का जोधपुर मिलिटरी स्कूल में पढ़ता है। लड़की गांव में ही पढ़ती हैं।’’
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