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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘होना तो यही चाहिए था, परन्तु मैं जानता था कि मानव लोभ और मोह के दोष इनमें भी वैसे ही हैं जैसे किसी भी देश के नागरिक में है। यदि यह कहूं कि इनमें वे दोष कुछ अधिक मात्रा में ही हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।’’
‘‘ये लोग, मस्जिद के चूहे की भांति सांसारिक सुखों से वंचित, जब भी मिलने वाले राशन से कुछ अधिक पाते हैं तो देने वाले के प्रति कृतज्ञता अनुभव करने लगते हैं।’’
‘‘इनके उच्च से उच्च अधिकारी भी हमारे नेपाल से लाये सामान को पाने की उत्कट लालसा करते रहते हैं। हम इनको ऐसी वस्तुयें लाकर देते हैं जो इन्होंने कभी स्वप्न में भी नहीं देखी होतीं।’’
तेजकृष्ण मन में रात ‘हट’ में लेटा-लेटा विचार कर रहा था कि अगले दिन उनको मृत्यु दण्ड हो जाएगा और उनको गोली से उड़ा दिया जाएगा। उसे अपने शरीर के विघटित होने का इतना ही शोक था कि वह नज़ीर का सुख बहुत ही अल्पकाल के लिए भोग सका था। वह किसी भावी जीवन में विश्वास नहीं रखता था। इस कारण उसे शोक था तो नज़ीर जैसी सुन्दर पत्नी को पाकर शीघ्र ही छोड़ने का, परन्तु एक दार्शनिक की भांति वह होनी में विश्वास रखता था। जो वश में नहीं उसके लिए शोक करना उसके स्वभाव में नहीं था। अतः वह मन में विचार कर ‘हट’ में तख्ते पर लेटा था कि जो होना है, होगा ही।
उसे विश्वास नहीं था कि उसका गाइड उसको शिविर से बचाकर ले जा सकेगा और अब जब उसके साथी नाले के किनारे एक चट्टान का आश्रय लिए ऊंघ रहे थे, वह विस्मय कर रहा था कि किस प्रकार बचकर आ गया है?’’
अतः उसे पुनः नज़ीर को पाने की आशा बन गई थी। एक-एक घण्टा भर बारी-बारी तीनों ने विश्राम किया और फिर चल पड़े। अब वे नेपाल की सीमा में जा पहुंचे थे।
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