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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘परन्तु!’’ यशोदा ने मुस्कराते हुए कह दिया, ‘‘यहां तो बिना एक बार भी कहे वह छोड़ गया है।’’
‘‘यही तो तेज़ ने किया था।’’ करोड़ीमल ने कहा, ‘‘मैं तो तब ही समझ गया था कि नज़ीर ने तेज को इस्लाम की दीक्षा पहले दी है और उसका अपहरण पीछे किया है।’’
‘’तो तेज का अपहरण हुआ था?’’ यशोदा ने पूछ लिया।
‘‘मैं यही समझा था।’’
तेज ने गाड़ी चलाते हुए कहा, ‘‘पर मैं तो वापस पहुंच गया हूं।’’
‘‘यह अभी देखना है कि तुम घर पहुंचे हो अथवा भटक रहे हो।’’
‘‘क्या मतलब, पिताजी?’’ तेजकृष्ण ने पूछ लिया।
‘‘यही कि तुम मानसिक विचार से घर पहुंचे हो अथवा तुम्हारा शरीर ही यहां आया है।’’
इस पर तेज गम्भीर विचार में मग्न हो गया। वह गाड़ी भी चला रहा था। इससे उसका ध्यान बटा हुआ था और उसकी विचार श्रृंखला भी टूट-टूट जाती थी। यशोदा और करोड़ीमल उत्सुकता से तेजकृष्ण के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे।
तेजकृष्ण समझ रहा था कि पिता उससे पूछ रहे हैं कि क्या उसने नज़ीर का विचार मन से निकाला है अथवा नहीं? वह अपने मन में टटोल रहा था कि नज़ीर वहां अभी विराजमान है अथवा नहीं।
घर के द्वार पर तो गाड़ी खड़ी कर उसमें से उतरते हुए तेज ने कहा, ‘‘पिताजी! मैं अभी अपने मन में उसका सम्मोहन अनुभव करता हूं’’
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