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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


सरस्वती प्रज्ञा का मुख देखती रह गई। फिर एकाएक कहने लगी, ‘‘उस दिन यासीन ने मुझे बताया था कि उसके अब्बाजान ने उसे कहा था कि तुम्हें घर से पीट-पीटकर घर से निकाल दे, क्योंकि नगीना को तुम्हारी जगह बैठाना है।’’

‘‘बस, इस बात को सुनकर मुझे उस दिन अपनी पिटाई की बात याद आ गई और मेरी आँखों में आँसू भर आए थे। आज भी तुम्हारे घर वाले अपने वालिद को खुदा-दोस्त मानने पर शक किया था। मैं खुदा की बेइन्साफी पर दुःखी हो रोने लगी थी और इसी कारण खाना छोड़ भाग आई हूँ।’’

‘‘मैं,’’ प्रज्ञा ने कहा, ‘‘एक बात समझी हूँ कि अब्बाजान ने अपने पहले जन्म में कुछ बहुत ही अच्छे कर्म किए हैं जिनका नतीजा यह धन, दौलत और सुख-आराम उन्हें मिल रहा है। मगर यह उस तरह है, जैसे कुछ जमा किये खजाने में से खर्च कर रहे हों। एक दिन वह सब पहले का जमा किया खर्च हो जायेगा, तब बहुत मुश्किल होगी। मुझे डर है कि तब उनका क्या बनेगा।’’

‘‘इस पर भी अम्मी! परमात्मा का शुक्र-गुजार होना चाहिए कि आपका लड़का आपकी सब किस्म की खिदमत करने के लिए हाजिर रहता है। हम सबका पालन करने वाले ने खाने, पहनने और रहने के सुख तथा आराम के साधन हमें दिये हैं।’’

सरस्वती को प्रज्ञा के इस प्रकार के कथन को सुन सन्तोष और शान्ति मिली। वह बोली, ‘‘हाँ! उस परवरदिगार की इतनी तो मेहर है कि इस समय किसी प्रकार का दुःख-दर्द नहीं।’’

इसके उपरान्त दिन शान्ति और सुख से व्यतीत होने लगे। प्रायः सप्ताह में एक पत्र उमाशंकर का कमला के नाम आ जाता था। उसका उत्तर जाता था। प्रज्ञा इस सब से परिचित थी। कमला प्रज्ञा के भाई के पत्र उसको दिखा देती थी।

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