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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘साथ ही मेरी जिन्दगी का नजरिया बदल गया है। मैं समझ गया हूँ कि खाने-पीने से जो कुछ भी ज्यादा हो, वह खुदा के कामों पर खर्च कर देना चाहिए। इसलिए यह जो कुछ मिल रहा है, उससे ज्यादा पाने की ख्वाहिश नहीं है। मैंने जब सब कुछ खरायत में दे देना है तो फिर उसके लिए नौकर क्यों करूँ?’’
‘‘तुम सबका दिमाग खराब कर दिया है इस हिन्दू छोकरी ने।’’ अब्दुल हमीद ने प्रज्ञा की ओर संकेत कर दिया।
उत्तर ज्ञानस्वरूप ने ही दिया, ‘‘आप तो खुद ही मुझसे अलहदा हो चुके हैं। अब इसमें मैं जो चाहूँ सो करूँ। मैं अपने खाने से ज्यादा का अपने को हकदार नहीं समझता।’’
‘‘तो बकाया किसका है?’’
‘‘परमात्मा, मेरा मतलब है खुदा देता है और उसके नाम पर ही बस खर्च करने का विचार कर रहा हूँ। इस ख्याल के दिमाग में आये पन्द्रह दिन हुए हैं। मैंने इस फण्ड का एक अलहदा खाता खोल दिया है।’’
‘‘अच्छा! यह सुन लो। यह नगीना की माँ उसे अपने साथ ले चलने आई है।’’
‘‘यह नगीना जाने और उसका काम जाने। मैं इसे मना नहीं करूँगा। हाँ, अगर नहीं जाना चाहेगी तो मैं इसे यहाँ रखने की कोशिश करूँगा।’’
इस समय कमला अपने स्थान से उठ खड़ी हुई। अब्दुल हमीद ने पूछा, ‘‘भागी कहाँ जा रही हो?’’
‘‘अब्बाजान! भागी नहीं जा रही। पुलिस स्टेशन पर टेलीफोन करने जा रही हूँ।’’
‘‘किसलिए?’’ ज्ञानस्वरूप ने विस्मय से कमला की ओर देख पूछ लिया।
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