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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘यह तो उनके सत्ताईस वर्ष तक सेवा करने का परिणाम है। सेवाकर्म में विचार नहीं किया जाता। अब उनकी बिना विचारे काम करने की आदत घर के मामलों में भी चलती है। यहाँ कोई अफसर नहीं। इस कारण वह जो मन आए करते हैं; मगर अपने कामों का युक्तियुक्ति ढंग से वर्णन नहीं कर सकते। यह वफादारी के भाव से सेवा-कार्य करने का स्वाभाविक नतीजा है।’’
‘‘हम उनके इस स्वभाव को सहन करते रहे हैं और आपको भी यह करना होगा। तभी आप हमारे घर के प्राणी बन सकेंगे।’’
ज्ञानस्वरूप हँस पड़ा। हँसते हुए बोला, ‘‘मैं मध्याह्नोत्तर घर गया था और वहाँ प्रज्ञा ने पूर्ण घटना संक्षेप में सुनाई थी। मैंने उसे पहले ही कहा था कि उसने भूल की है जो उठकर चली आई है।’’
उमाशंकर ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘केवल बैठे रहने से बात नहीं चल सकती थी, प्रत्युत पिताजी को भागने से रोकना चाहिए था। हम युवा लोग अपने मन के सन्तुलन को शीघ्र प्राप्त कर सकते हैं और हमें बूढ़ों की, अपना सन्तुलन सुधारने में सहायता करनी चाहिए।’’
‘‘पर कैसे? प्रज्ञा डरती थी कि यदि वह पिताजी की बाँह पकड़कर उनको रोकती तो वह वायलैंस पर उतर आते?’’
‘‘नहीं जीजाजी! वह ऐसा नहीं कर सकते। कारण यह कि ऐसा उन्होंने नौकरी के काल में किया नहीं। यह उनके स्वभाव में नहीं है।’’
‘‘देखिए!’’ बात उमाशंकर ने ही जारी रखी और कहा, ‘‘जब वह लौट आये और भोजन कर संतुष्ट हो गये तो मैंने उनको समझाया और उन्होंने स्वीकृति दे दी कि मैं प्रज्ञा तथा आपकी माताजी से मिलकर दोपहर की घटना के लिए क्षमा माँगूँ। मैं इसीलिए साथ चल रहा हूँ। प्रज्ञा के सामने ही पिताजी के साथ व्यवहार के लिए साँझी योजना बनायेंगे।’’
प्रज्ञा दादा को अपने पति के साथ आते देख विस्मय में दादा का मुख देखती रह गई। उमाशंकर ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘मैं तुमसे क्षमा माँगने आया हूँ।’’
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