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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596
आईएसबीएन :9781613011027

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


इस समय ज्ञानस्वरूप और उमाशंकर ड्राइंगरूम में जा पहुँचे थे। वहाँ सरस्वती और कमला खड़ीं ज्ञानस्वरूप की प्रतीक्षा कर रही थीं। वे भी प्रज्ञा के बड़े भाई को आया देख चकित रह गईं।

‘‘आप यहाँ आने का साहस बटोर सके हैं, इसके लिए धन्यवाद करना चाहिए।’’

‘‘माताजी! इनको रात के भोजन का निमंत्रण दीजिए।’’ कमला ने कहा।

‘‘नहीं कमला! मैं आप सबको वहाँ भोजन करने के लिए निमंत्रण देने आया हूँ। पिताजी का विचार था कि आप लोग नहीं मानेंगे और मैं कहकर आया हूँ कि मना लूँगा।’’

‘‘तो दादा!’’ बातों का सूत्र प्रज्ञा ने अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘माताजी को टेलीफोन कर दो हम इस दावतनामे को संहर्ष स्वीकार करते हैं।’’

‘‘ठहरो प्रज्ञा! सरस्वती ने बातों में दखल देते हुए कहा, ‘‘पहले सब बात सुन लें। पीछे स्वीकृति देंगे।’’

‘‘अम्मी! बात तो वहाँ माता-पिता के सामने ही सुनेंगे। यह तो यहाँ बात बनाकर भी कह सकते हैं। पिताजी की बात पिताजी के मुख से ही सुननी ठीक रहेगी।’’

सरस्वती चुप रही। इस पर प्रज्ञा ने कहा, ‘‘दादा! टेलीफोन में कह दो कि हम आपका निमंत्रण स्वीकार कर आ रहे हैं।’’

उमाशंकर को बता इस प्रकार निश्चय होती देख विस्मय हुआ और वह उठा तथा धन्यवाद करता हुआ टेलीफोन करने लगा। उधर से महादेवी ही बोली और उसने कहा, ‘‘ठीक है! मगर उस लड़की को कह दो कि वह बैक-ग्राउण्ड में ही रहे। वह स्वयं मत बोले। प्रज्ञा को ही अपनी बात कहने दे।’’

‘‘मैं समझती हूँ, ‘‘महादेवी ने आगे कहा, ‘‘यह कमला की हाजिर-जवाबी ही है जो उनके दिमाग में खुजली पैदा कर देती है।’’

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