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उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
चोंगा वापस रखते हुए उमाशंकर ने सब को कहा, ‘‘आप अब हमारे घर चलने को तैयार हो जायें। शेष बात वहीं चलकर होगी।’’
‘‘ठीक है।’’ ज्ञानस्वरूप ने कहा, ‘‘और मैं यहाँ की घटना का वृत्तान्त भी अब वहाँ चलकर ही बताऊँगा।’’
‘‘तो यहाँ भी किसी प्रकार की घटना हुई है?’’
‘‘हाँ! बहुत ही भयानक, परन्तु मजेदार।’’
‘‘दो परस्पर विरोधी बातें कैसे हो गई हैं?’’
‘‘इस बात को प्रज्ञा ही बताएगी। मुझे तो यह बताइए, कितना रुपया क्लीनिक में फूँक चुके हैं?’’
‘‘कुछ अधिक नहीं। आपने जितना दुकान पर लगाया है, उतना नहीं।’’
‘‘मगर जो अमेरिका में पढ़ाई पर व्यय कर आये हैं, वह भी तो आपके काम में लगा मानना होगा।’’
‘‘हाँ! यदि उस सबकी गिनती करूँ, तब आपके यहाँ से अधिक नहीं तो बराबर ही लागत में हो जायेगा। मैंने वहाँ से लौटकर सब का मूल्य लगाया है।’’
‘‘मैं बी.ए. पास कर पिताजी से पाँच हजार रुपये लेकर गया था। उसमें से अढ़ाई हजार तो हवाई जहाज का भाड़ा ही लग गया था। शेष अढ़ाई हजार मेरी फीस थी। इस कारण दाखिले की तारीख की प्रतीक्षा के दिनों में मैंने सांनफ्राँसिस्को में पार्ट-टाईम काम ढूँढ़ना आरम्भ कर दिया। सौभाग्य से काम मिल गया। तीन घण्टे नित्य सायंकाल टाइपिस्ट का काम करता था। उसमें से कालेज-होटल का व्यय और विश्वविद्यालय की फीस, सब मिल-मिलाकर पन्द्रह डालर नित्य के खर्च हो जाते थे। शेष मेरे पास पन्द्रह डालर नित्य बच जाता था। मैंने यत्न लगाकर काम किया तो मालिक प्रसन्न हुए और मैं अपनी पढ़ाई के पाँच वर्ष वहाँ काम करता रहा। बीच-बीच में छुट्टी भी करता रहा था।’’
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