उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘यह शहंशाह यही कर रहा है। पूर्व जन्म के कर्मफल के कारण यह लुटेरा पकड़ा नहीं जा रहा। परंतु परमात्मा देख रहा है कि यह उस बल और प्रभुता का प्रतिकार जनता को नहीं दे रहा, जो इसे लूट के प्रतिकार में देना चाहिए। इस कारण यह माल पाप से लथपथ है। इसे अपने निजी लाभ के लिए प्रयोग में मत लाना।’’
‘‘तो किस प्रयोग में लाऊँ?’’
‘‘लोकसेवा के। यह लोगों का रुपया है जो अकारण यह चोर उठा-उठा अपनी जेब में डाल रहा है। इस कारण लोगों की सेवा में ही इसे प्रयोग में लाना।’’
‘‘और सत्य ही यदि सराय सरकारी खर्चे पर बनवा दी गई तो?’’
‘‘तो उसमें से अपने परिश्रम का मूल्य निकाल शेष जन-जन की सेवा में व्यय कर देना।’’
‘‘यह मुझ जैसा अनपढ़ कैसा जान सकेगा कि मेरी मेहनत का भाग क्या है और लोगों का भाग कितना है?’’
‘‘मैं दस कोस की यात्रा एक ही दिन में करना नहीं चाहता। रात इसी कुएँ पर सोऊँगा और बताऊँगा कि इस पाप की कमाई के दोष से कैसे बचना चाहिए।’’
रामकृष्ण तो एक घंटा-भर विश्राम कर सफाई और मरम्मत के काम में लग गया और विभूतिचरण सराय की इमारत का एक नक्शा बनाने लगा। अगले दिन जाते समय पंडित ने यह कागज, जिस पर सराय के स्थान पर निर्माण का मानचित्र बनाया था, रामकृष्ण को देते हुआ कहा, ‘‘यदि सरकारी कर्मचारी निर्माण के लिए आएँ तो उनको यह कागज देकर कह देना कि तुम इस प्रकार की इमारत चाहते हो।
‘‘कह नही सकता कि यह दुष्ट व्यक्ति यह बनवाएगा अथवा नहीं। हाँ, यदि यह इमारत बन गई तब मैं बताऊँगा कि इसका प्रयोग कैसे करना है।’’
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