उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘और उसको जानने के लिए आपको कहाँ पाऊँगा?’’
‘‘मुझे ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है। समय पर मैं स्वयं आऊँगा और इस प्रकार के बने मकान का उपयोग बताऊँगा।’’
दो दिन उपरांत कारीगर और उनसे काम लेनेवाला एक उच्चाधिकारी सराय की इमारत बनाने के लिए आए। उस सरकारी उच्चाधिकारी ने जब भूमि को नापना आरंभ किया तो रामकृष्ण ने उसके पास जाकर पता किया कि वह क्या कर रहा है?
‘‘सरकारी हुक्म से यहाँ एक सराय बनवा रहा हूँ।’’
‘‘मगर मैं इस स्थान पर ऐसी इमारत बनवाना चाहता हूँ जिसका नक्शा यहा है।’’
‘‘कैसा नक्शा है? दिखाओ।’’
रामकृष्ण ने वही कागज दिखा दिया जो पंडित विभूतिचरण उसे दे गया था। सरकारी अधिकारी ने पूछा, ‘‘यह किसने बनाया है?’’
‘‘मेरे पुरोहित जी ने।’’
‘‘वह कहाँ है?’’
रामकृष्ण जानता नहीं था कि पंडित कहाँ रहता है। इस कारण उसने कहा दिया, ‘‘वह तीर्थयात्रा पर गए हुए हैं। तीन महीने में लौटेंगे।’’
‘‘मगर यह तो शहंशाह के हुक्म के बिना नहीं बना सकते।’’
‘‘तो हुक्म ले लो। अन्यथा मैं चाहूँगा कि यहाँ पर मुझे खुद बनाने की इज़ाजत होनी चाहिए।’’
सरकारी अधिकारी अपने साथ पचास से अधिक राजगीर, मजदूर इत्यादि लेकर आया था। साथ ईंट, चूना और अन्य इमारती सामान बैलगाड़ियों पर लगा हुआ भी पहुँच चुका था। उसे यह हुक्म था कि रामकृष्ण सरायवाले से पूछकर जहां वह कहे पचास यात्रियों के रहने योग्य सराय बना दी जाए।
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