उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘इमारत तो बन जानी चाहिए। इसका मतलब हम उससे पता करेंगे।’’
करीमखाँ नहीं जानता था कि शहंशाह के मन में क्या है। वह मुख लगा कर्मचारी अवश्य था, मगर वह इस कारण कि शहंशाह की निजी ख्वाहिशात को पूरा करने के लिए वह एक योग्य सहायक था; लेकिन राज्य-कार्य में उससे सम्मति नहीं ली जाती थी। कभी वह सम्मति देता भी था तो शहंशाह उसकी सम्मति को हँसी-मजाक में उड़ा देता था।
करीमखाँ सराय की तामीर में सम्मति दे रहा था। उसने कहा, ‘‘हुज़ूर! इस काफिर पर इतनी मेहर किसलिए की जा रही है?’’
‘‘यह इस कारण कि तुमने हमारे हुक्म से बहुत ज्यादा नुकसान इसे पहुँचाया था। तुम हमारे दिली दोस्त हो इसलिये तुम्हारे गुनाहों का बदला मैं दे रहा हूँ।’’
करीमखाँ चुप रहा। वस्तुस्थिति यह थी कि सराय की तलाशी लेने का मतलब यही था कि इमारत में यदि कोई तहखाना हो तो उसको भी देखा जाए। तहखानों के विषय में बिना खुदाई किए पता नहीं चल सकता था।
इस पर भी वह चुप था। अकबर का हुक्म हुआ और पचास के स्थान पर दो सौ काम करनेवाले भटियारिन की सराय को बनाने लगे।
पंडित विभूतिचरण को आगरा से लौटे अभी तीन दिन ही हुए थे कि अकबर का खास खिदमतगार फिर द्वार पर आ पहुँचा और बताने लगा कि शहंशाह ने याद फरमाया है।
इस बार पंडित को यह बुलावा भला प्रतीत नहीं हुआ। उसे संदेह हो रहा था कि भटियारिन की सराय के विषय में किसी प्रकार की पूछताछ करने के लिए बुलाया जा रहा है।
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