उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
इस बार पंडित जी ने फारसी में लिखकर उत्तर भेजा। उसने लिखा, ‘‘मैं एक पूजा पर बैठ गया हूँ जो तीन मास में समाप्त होनेवाली है और बीच में मैं उठ नहीं सकता। इस काल में मैं मकान से बाहर नहीं जा सकता। यदि हुज़ूर प्रश्न लिखकर भेज दें तो उत्तर भेज दूँगा।’’
सरकारी अर्दली गया और पाँच दिन मैं लौट आया। इस बार वह एक पत्र लाया जिसमें लिखा था, ‘‘हम यह जानना चाहते हैं कि आपका भटियारिन की सराय के मालिक से क्या संबंध है? मैंने आपकी तजवीज़शुदा इमारत के बनाने का हुक्म जारी कर दिया है। मगर उसका मतलब नहीं समझा। यही जानने के लिए आपको बुलाया था। इस पर रोशनी डालें।’’
पंडित ने उत्तर में लिख भेजा, ‘‘हुज़ूर! शहंशाह-ए-हिंद की बचपन की किसी शरारत का नतीजा भोगनेवाले इश्खास की मदद कर मैं शहंशाह को उस गुनाहे-अज़ीम से बचाने की कोशिश कर रहा हूँ जिसके वह मुरतकिब हो रहे हैं। उसी के लिए पूजा के आसन पर बैठा उठ नहीं रहा। तीन महीने के बाद खिदमत में हाज़िर हो जाऊँगा।’’
‘‘शाहंशाह का अगला सवाल आया, ‘‘सुंदरी कहाँ है? हम उसकी भी मदद करना चाहते हैं।’’
‘‘वह बहुत मुसीबत में फँसी हुई भटक रही है। यह उसके अपने अमालों का नतीजा है। इसमें आप उसकी मदद नहीं कर सकते। उसे अपना मुस्तकबिल खुद सुधारना चाहिए।’’
शहंशाह को कुछ यह समझ आया कि पंडित सीमा से अधिक जान गया है। कैसे? वह समझ नहीं सका। अकबर इस रहस्य को जानने के लिए परेशान था। वह समझ रहा था कि विधवा कल्याणी से पंडित का किसी प्रकार का संबंध रहा है और कल्याणी के उस कागज के पुर्जे से वह सब समझ गया है।
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