उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
इस समय उसके मन में फितूर समा गया कि इस पंडित का खुर-खोज मिटा देना चाहिए जिससे यह बात विख्यात न हो जाए कि उसने अपनी ही लड़की से गुनाह किया है।
पंडित का खुर-खोज मिटाने की बात पर विचार करते हुए उसे उस समय की बात याद आ गई जब उसने कल्याणी से संबंध बनाया था।
जब अकबर का पिता हुमायूँ हिंदुस्तान में अपने पिता से विजय किए राज्यों को पुनः जीतने के लिए काबुल से चला था तो अकबर अपने पीरमुर्शिद बहरामखाँ के साथ हिंदुस्तान में भेस बदलकर घूम रहा था। बहरामखाँ का इसमें अपना प्रयोजन था। वह अकबर के स्थान पर स्वयं शासन करना चाहता था। अकबर तो उस वसीह सल्तनत को देखना चाहता था जिसके विषय में एक नज़ूमी ने नज़ूम लगाया हुआ था कि वह शहंशाह बनेगा।
दोनों हिंदुओं के पहरावे में घूम रहे थे। जब हुमायूँ अपनी सेनाओं के साथ रावी नदी पार कर दिल्ली की ओर बढ़ रहा था तो अकबर अपने मुर्शिद के साथ दिल्ली और आगरा के आसपास के क्षेत्र को देख रहा था।
एक रात वे एक गाँव में देर से पहुँचे तो एक ब्राह्मण के घर में ठहर गए। कल्याणी उस ब्राह्मण की विधवा पतोहूँ थी। घर में मेहमान आए थे जो अपने को कश्मीरी ब्राह्मण प्रकट कर रहे थे। बहरामखाँ अकबर का पिता होने का अभिनय कर रहा था। लड़का चौदह-पंद्रह वर्ष की आयु का प्रतीत होता था। सुंदर-सुकुमार, ओजस्वी रूपरेखावाला था। कल्याणी देखते ही मुग्ध हो गई। वह अट्ठारह-उन्नीस वर्ष की स्त्री थी। उसके पति का देहांत हुए तीन वर्ष हो चुके थे। अकबर को भी ब्राह्मण की पतोहू आकर्षक लगी। दोनों रात के समय मकान के बाहर खेत में मिले और अपने कर्म के होनेवाले परिणाम को भूल गए।
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