उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
यद्यपि बहरामखाँ तो केवल रात-भर रहने का विचार रखता था और अगले दिन चला जाना चाहता था, परंतु अकबर ने रुग्ण हो जाने का बहाना कर दिया। उसने कहा कि उसे विशूचिका लग रही है।
विवश गुरु-शिष्य को उस ब्राह्मण की मेहमानदारी में कई दिन रहना पड़ा और जब तक वे वहाँ रहे, रात के समय कल्याणी अकबर को अपने शयनागार में स्थान देती रही।
कल्याणी विदुषी स्त्री थी, परंतु मन के वासनाभिभूत होने पर अकबर से संबंध बना बैठी। अखबर चला गया और अपना नाम-धाम कल्याणी को बताए बिना अपना बीज उसमें डाल गया।
कल्याणी के गर्भ ठहर गया और जब उसके श्वसुर को पता चला तो उसने पतोहू को घर से निकाल दिया। कल्याणी गाँव से चल आगरा शहर में एक भाड़े के मकान में रहने लगी। इस समय तक उसे अपने कर्म की हीनता का भास हो चुका था। वह पाश्चात्ताप की आग में जलने लगी थी। उसके मन में कई बार यह विचार आया था कि युमना जी के प्रवाह में शरीर त्याग दे, परंतु शरीर में बन रहे नए प्राणी की हत्या कर पाप सिर पर न लेने के विचार से वह बच्चे को जन्म देने तक जीवन चलाने का यत्न करती रही।
जैसे—जैसे प्रसव-काल समीप आता गया, वह इस चिंता में थी कि बच्चे को किसी देहात में जन्म दे और अपनी थोड़ी-सी जमा पूँजी बच्चे को दे जाए। उस थोड़ी-सी पूँजी से देहात में ही बच्चे के पालन-पोषण का प्रबंध हो सकेगा। इस कारण वह चाहती थी कि किसी ऐसे गाँव में, जहाँ उसे कोई न जानता हो, ठीक प्रसव के दिन पहुँचे, प्रसव करे और संभव हो तो वहीं प्राण दे दे।
ऐसा विचार कर उसने एक बारीक कागज पर अपनी इच्छा लिख दी और अपने गले के हार के नीचे लटक रहे नीलम के पीछे छुपाकर रख प्रसव-काल की प्रतीक्षा करने लगी।
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