उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
विभूतिचरण ने उत्तर नहीं दिया। वह अभी भी चुपचाप सामने बैठा रहा। इस पर अकबर ने ताली बजा एक सेवक को बुलाया और हुक्म दिया, ‘‘पंडित जी को गुसल वगैरा कराओ और इनको ब्राह्मण के हाथ का बना खाना खिलाकर हाजिर करो।’’
इस समय दिन का दूसरा प्रहर समाप्त होनेवाला था। करीमखाँ ने शहंशाह को बता रखा था कि पंडित ने दो दिन से कुछ खाया-पीया नहीं है।
तीसरे प्रहर जब अकबर अपनी जयपुर वाली रानी जोधाबाई से पंडित की सब कथा बता रहा था तो महारानी ने कहा, ‘‘और किस कसूर पर जहाँपनाह ने उसे यहाँ बुलाया है?’’
‘‘वह एक औरत का पता जानता है और बताता नहीं।’’
‘‘और वह औरत आपकी क्या है जो आपको पता बताया ही जाए?’’
अकबर सब बात अपनी इस हिंदू बेगम को बताना नहीं चाहता था। उसने केवल यह कहा, ‘‘किसी वजह से हमारी उस औरत में दिलचस्पी है। पंडित उसके मुतअल्लिक जानता है। इसने अपने एक पत्र में लिखा है कि वह मुसीबत में फँसी भटक रही है। हम उसकी मदद करना चाहते हैं और यह उसका पता बताता नहीं।’’
‘‘मगर आपने एक विद्वान ब्राह्मण को हथकड़ी और बेड़ी लगा यहाँ मँगवाया है। यह तो आपने उसका घोर अपमान किया है। मैं समझती हूँ कि वह आपके दर पर बैठा भूख से मर जाएगा।’’
‘‘मैं नहीं जानता कि क्या करूँ। मैं उस औरत का पता जानना चाहता हूँ।’’
‘‘उसे मेरे सामने लाइए। मैं उसके साथ हुए अपमान का बदला देना चाहती हूँ।’’
‘‘वह धन-दौलत तो पहले ही नहीं लेता। उसे कई बार दक्षिणा देने की कोशिश की गई है, मगर उसने आने-जाने का भाड़ा तक नहीं लिया। वह जब भी यहाँ आता है, पैदल ही आता और पैदल ही जाता है। इस पर भी उसने अपनी विद्या से मेरी बहुत मदद की है।’’
|