उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘मगर यह कोई वजह नहीं कि उसे कैद किया जाए। विद्वान् व्यक्ति की सेवा-सुश्रुषा से उसे प्रसन्न कर ही कुछ काम लिया जा सकता है।’’
‘‘मैं परेशान हूँ कि क्या करूँ।’’
‘‘उसे मेरे सामने हाजिर करिए। मैं जाली के पीछे बैठ उसके इस दुराग्रह का कारण जानना चाहूँगी।’’
‘‘अकबर को बात समझ आ गई और वह अपनी इस हिंदू बेगम के साथ जाली के पीछे बैठ गया और पंडित को जाली के बाहर लाकर खड़ा कर देने का हुक्म दे दिया।
पंडित को घेरे हुए दो सिपाही जाली के बाहर ले आए। पंडित को वहाँ खड़ा कर सब सिपाही चले गए तो बिना एक भी शब्द बोले विभूतिचरण घूमा और दीवानखाने से बाहर जाने लगा इस पर जाली के पीछे से जोधाबाई ने आवाज दे दी, ‘‘पंडित जी! मैंने आपसे एक प्रार्थना करने के लिए यहाँ बुलाया है।’’
‘‘विभूतिचरण एक औरत की आवाज सुनकर रुका और पुनः जाली की ओर मुख कर पूछने लगा, ‘‘मैं नहीं जानता कि कौन बोल रहा है। मैं हवा में उत्तर देने का स्वभाव नहीं रखता।’’
‘‘तो इन सिपाहियों ने बताया नहीं कि आपको कहाँ लाया गया है?’’
‘‘नहीं, जी।’’
‘‘तो सुनिए! जयपुर-नरेश की एक लड़की इस महल में मलिका बनाकर लाई गई है। मैं वही औरत हूँ। शहंशाह-ए-हिंद की बेगम।’’
‘‘ओह!’’ विभूतिचरण अब जाली की ओर मुख कर खड़ा हो गया था और जाली की ओर हाथ जोड़ नमस्कार कर बोला, ‘‘यह बेअदबी कि हिंद की मलिका का मुनासिब मान नहीं किया, अनजाने में हो गई है। माफी चाहता हूँ।’’
‘‘पंडित जी! बैठिए।’’
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