उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
विभूतिचरण बैठ गया। जाली के पीछे से आवाज आई, ‘‘आपने भोजन कर लिया है?’’
‘‘हुज़ूर! स्नान और पूजा तो की है, मगर भोजन नहीं किया।’’
‘‘किसलिए?’’
‘‘जब तक इस अत्याचार की, जो मुझ पर किया गया है, वजह नहीं बताई जाती, अन्न का दाना पेट में नहीं जा सकता।’’
‘‘क्या अत्याचार हुआ है?’’
‘‘बिना अपराध बताए पूजा के आसन से उठा हथकड़ी और बेड़ी लगा इक्के में डाल यहाँ लाया गया है। मैं यह बिना वजह समझता हूँ। इसी कारण इसे अत्याचार कह रहा हूँ।’’
‘‘सत्य! यह तो कदाचित् इस कारण किया गया है कि आपने यहाँ आने से इनकार किया होगा।’’
‘‘मैं किसी का सेवक नहीं हूँ। कहीं आने-जाने पर मुझे कोई विवश नहीं कर सकता। मैं पूजा पर बैठा था कि मुझे बाँहों से पकड़ खींचकर पूजा के आसन से उठा दिया गया। पीछे हथकड़ी और बेड़ी लगा इक्के में लाद यहाँ ले आया गया हूँ।’’
‘‘मगर एक शहंशाह का हुक्म तो मानना ही चाहिए। यदि उसके हुक्म की अदूली की जाएगी तो उसकी हकूमत नहीं चल सकती।’’
‘‘यह ठीक है। मगर मैं शहंशाह से भी बड़े शहंशाह की अर्दली में उपस्थित था। उसकी आज्ञा के बिना वहाँ से मैं आ नहीं सकता था।’’
‘‘तो यह उस शहंशाहों के शहंशाह की बेअदबी हुई है। आप उनके बीच में क्यों आते हैं? वे दोनों आपस में ले-दे कर लेंगे। जहाँ तक आपका संबंध है आपको अपने शहंशाह का हुक्म मानना चाहिए था।’’
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