उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘महारानी जी! आप ठीक कहती हैं और मैं उस शाह अजीम के दरबार में ही फरियाद कर रहा हूँ। मेरी फरियाद करने का यही तरीका है। जब तक फरियाद सुनी नहीं जाती तब तक अन्न नहीं लूँगा।’’
‘‘क्या फरियाद कर रहे हैं?’’
‘‘मैं एक आजाद इनसान हूँ और किसी की गुलामी मैंने अभी तक मंजूर नहीं की। इसलिए मुझे अपना गुलाम समझनेवाले को मना कर दिया जाए। वह अपना काम करे और मुझे अपना काम करने दिया जाए।’’
‘‘आपका क्या काम है?’’
‘‘जब मुझे पकड़ा गया था, मैं अपने बनानेवाले को स्मरण कर रहा था। उसी के दरबार में अर्ज़ी कर रहा हूँ कि मुझे अपने काम करने में कोई बाधा न डाले।’’
‘‘मैं समझती हूँ कि जिससे आप अर्जी कर रहे हैं, उसने आपकी अर्जी मंजूर कर ली है और मैं उसी की यह बात कह रही हूँ कि वह आपको प्रेरणा दे कि मेरे प्रश्नों का उत्तर आप देते जाएँ।’’
पंडित जी मुस्कराए। वह समझ गए कि पुरुष से स्त्री अधिक युक्ति-युक्त बात कर सकती है। इस पर भी उसने कहा, ‘‘बेगम बहन! मुझे अनुभव यह होने दें कि मेरी अर्जी उस बड़े दरबार में मंजूर हो गई है। जब मुझे यह अनुभव होगा तो फिर मैं बेगम बहन की बात सुन उसके प्रश्नों के उत्तर दे सकूँगा।’’
‘‘कैसे अनुभव होगा कि आप एक पक्षी की भाँति उड़ जाने के लिए आजाद हैं?’’
‘‘मैं यहाँ से उड़कर सीधा अपने घर वहीं पूजा के आसन पर जाकर बैठूँगा तो मैं अनुभव कर सकूँगा कि मेरी अर्जी मंजूर हो चुकी है। तब बहन के प्रश्नों का उत्तर दे सकूँगा।’’
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