उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘परंतु वहाँ जाने में तो बहुत देर लग जाएगी। इतने में तो अनजाने में किसी प्रकार का अनर्थ भी हो सकता है।’’
पंडित समझ गया था कि महारानी सुंदरी का पता जानना चाहती हैं। कदाचित् वह उसकी किसी प्रकार से सहायता करना चाहती हैं। यद्यपि वह समझ रहा था कि उसकी वर्तमान मुसीबत में शहंशाह तथा महारानी सहायता करेंगे तो उसका अधिक अनिष्ट कर देंगे। परंतु वह सहायता स्वीकार करना अथवा न करना सुंदरी का काम है, वह उसमें हस्तक्षेप क्यों करे? इस कारण उसने कहा, ‘‘बेगम बहन की बात मैं मान लेता हूँ। इस पर भी जिस विद्या के आश्रय से आपके प्रश्नों का उत्तर देने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकता हूँ, वह सामर्थ्य भी तो पेट में अन्न जाने पर ही आएगी। इसलिए मुझे यहाँ की सराय में जाने की इजाजत मिले। मैं वहाँ ही अपनी दैनिक पूजा समाप्त कर अन्त ले लूँ। तब ही मुझे समझ आ सकेगा कि मैं अब स्वतंत्र हूँ।’’
जोधाबाई ने बात सुगमता से बनती देख कह दिया, ‘‘इतनी देर तो हमारे प्रश्नों के उत्तर में सहन की जा सकती है और मैं समझती हूँ कि सर्वशक्तिमान् परमात्मा भी इसकी इज़ाजत दे रहा है।
‘‘इसलिए एक प्रहर तक हम शाही सवारी पंडित जी के लिए सराय में भेजेंगे और दुनियावी शहंशाह यह उम्मीद करेंगे कि तब तक पंडित जी को विश्वास हो जाएगा कि परमात्मा ने उनकी अर्जी को मंजूर कर यहाँ हुक्म भेज दिया है कि हम पंडित जी का पहले जैसा ही मान करें।’’
पंडित जी ने झुककर जाली को सलाम किया और दीवानखाने से बाहर चला आया। वहाँ खड़े दरबान ने हाथ जोड़ पंडित जी से कहा, ‘‘हुज़ूर! इधर आइए।’’
वह पंडित जी को राजमहल से बाहर ले गया और वहाँ खड़े एक शाही इक्के पर बैठा नगर सराय में ले गया। सरायवाले को पहले ही यह हुक्म था कि पंडित जी की सेवा-सुश्रूषा निःशुल्क करनी है।
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