उपन्यास >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
यह
अवसर मिल नहीं रहा था। दिन-पर-दिन व्यतीत होने लगे। सुमित्रा संजीव से
मिलने नहीं आई। इन दिनों उसको एक बात विचित्र दिखाई देने लगी थी। चरणदास
और मोहिनी दिन में कई बार आते थे और गजराज तथा लक्ष्मी से घण्टों ही कमरा
बन्द कर बातें किया करते थे। उन्होंने भी कभी यह यत्न नहीं किया कि संजीव
को अपने साथ ले जायँ।
इस प्रतीक्षा और सुमित्रा
के विचित्र व्यवहार
से उत्पन्न अपने मन की चंचलता को जब वह नहीं दबा सका तो वह सुमित्रा के
कॉलेज जा पहुँचा। इन दिनों कॉलेज प्रातः दस बजे से चार बजे तक का था।
कस्तूरीलाल को विदित था कि सुमित्रा की क्लास तीन बजे तक समाप्त हो जाती
है और वह कॉलेज के द्वार के बाहर पौने तीन बजे जा पहुँचा।
सुमित्रा
ठीक समय पर निकली तो वह आँखें नीची किए हुए ‘बस स्टाप’ की ओर चल पड़ी।
कस्तूरीलाल को ऊटी से वापस आने के दिन स्टेशन पर उसकी अवहेलना स्मरण हो
आई। वह समझ गया कि उसने जान-बूझकर उसका तिरस्कार किया है।
आज वह
इसका रहस्य जानना चाहता था। इस कारण लम्बे-लम्बे पग उठाता हुआ वह उसके साथ
हो लिया। साथ चलते हुए उसने धीरे से कहा, ‘‘सुमित्रा!’’
सुमित्रा
ने कस्तूरी के मुख पर देखा। कस्तूरी ने मुस्कराते हुए उसकी ओर देखा।
परन्तु वह मुस्कराहट एक क्षण ही रह सकी। सुमित्रा। की डब-डबाई आँखों में
वह तत्काल विलीन हो गई। अनायास गम्भीर हो उसने पूछा, ‘‘क्या बात है
सुमित्रा?’’
‘‘बात यह है कि तुम प्रथम
श्रेणी के बदमाश हो। तुम, तुम्हारे पिता और तुम्हारी जात-बिरादरी। पता लग
गया है न, क्या बात है?’’
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