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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
छठा दृश्य
(नगर के बाहर एक बँगला। उसमें जज की कचहरी लगी है। बाहर भीड़ है, पर अन्दर अभियुक्त रमानाथ जोहरा, जालपा, वकीलों, महिलाओ और रिश्तेदारों के अतिरिक्त और कोई नहीं है। जब महोदय व दूसरे अधिकारी और वकील सब गंभीर है। शेष लोग इतने गंभीर नहीं है। रमानाथ प्रसन्न है, जालपा प्रसन्न है, जोहरा प्रसन्न है। देवीदीन तो बार– बार फुदकता है। दिनेश की पत्नी और माँ तो जैसे निरंतर प्रार्थना में लीन हैं। बारी– बारी गवाहों के बयान होते हैं। अन्त में जालपा का बयान होता है। परदा उठने पर वही बोल रही है)
जालपा– मेरे पति निर्दोष हैं। ईश्वर की दृष्टि में नहीं, नीति की दृष्टि में भी वे निर्दोष हैं। उनके भाग्य में मेरी विलास शक्ति का प्रायश्चित करना लिखा था वह उन्होंने किया। मुझे विश्वास है कि मुझ पर अत्याचार करने की धमकी दे कर ही उनकी जवान बंद की गयी है। अगर अपराधिनी हूँ तो मैं हूँ, जिसके कारण उन्हें कष्ट झेलने पड़े। मैं मानती हूँ कि मैंने उन्हें अपना बयान बदलने को मजबूर किया। मैं यह नहीं सह सकती थी कि वह निरपराधियों की लाश पर अपना भवन खड़ा करें। जिन दिनों यहाँ डाँके पड़े उन तारीखों में मेरे स्वामी प्रयाग में थे। अदालत चाहे तो टेलीफोन द्वारी इसकी जाँच कर सकती है।
जज– (सरकारी वकील से) क्या प्रयाग से इस मुआमले की कोई रिपोर्ट माँगी गया थी?
सरकारी वकील– जी हाँ, मगर हमारा उस विषय पर कोई विवाद नहीं है।
सफाई का वकील– है क्यों नहीं। इससे तो यह सिद्ध हो जाता है कि मुलजिम डाके में शरीक नहीं था। अब केवल यह बात रह जाती है कि वह मुखबिर क्यों बना?
सरकारी वकील– स्वार्थ– सिद्धि के सिवा और क्या हो सकता है?
सफाई का वकील– मेरा कथन है कि उसे धोखा दिया गया और जब उसे मालूम हो गया कि जिस भय से उसने पुलिस के हाथों की कठपुतली बनना स्वीकार किया था, उसका भ्रम है तो उसे धमकियाँ दी गयीं।
जज– आर्डर, आर्डर, सरकारी वकील अपनी बहस शुरू करे।
(सरकारी वकील खड़ा हो जाता है। उसके हाथ में कागजों का एक पुलंदा है। वह दृष्टि कमरे में डालकर खखारता है, फिर बोलता है– )
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