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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

दसवां बयान

चुनार के किले के अन्दर महाराज शिवदत्त के खास महल में एक कोठरी के अन्दर जिसमें लोहे के छड़दार किवाड़ लगे हुए थे, हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी पड़ी हुई, दरवाज़े के सहारे उदास मुख वीरेन्द्रसिंह बैठे थे। पहरे पर कई औरतें कमर से छुरा बांधे टहल रही थीं। कुमार धीरे-धीरे भुनभुना रहे थे, ‘‘हाय! चन्द्रकान्ता का पता लगा भी तो किसी काम का नहीं। भला पहले तो मालूम हो गया था कि शिवदत्त चुरा ले गया मगर अब क्या कहा जाये? हाय चन्द्रकान्ता! तू कहां है? मुझको बेड़ी और यह कैद कुछ तकलीफ नहीं देती जैसा तेरा लापता हो जाना खटक रहा है। हाय! अगर मुझको इस बात का यकीन हो जाये कि तू सही-सलामत है और अपने मां-बाप के पास पहुंच गई तो इसी कैद में भूखे-प्यासे मर जाना मेरे लिए खुशी की बात होगी! मगर जब तक तेरा पता नहीं लगता, जिन्दगी बुरी मालूम होती है। हाय! तेरी क्या दशा होगी, मैं कहां ढूंढूं? यह हथकड़ी बेड़ी इस वक़्त मेरे साथ कटे पर नमक का काम कर रही है। हाय! क्या अच्छी बात होती अगर इस वक़्त कुमारी की खोज में जंगल-जंगल मारा-मारा फिरता, पैरों में काटें गड़े होते, खून निकलता होता, भूख-प्यास लगने पर भी खाना-पीना छोड़कर उसी का पता लगाने की फिक्र होती। हे ईश्वर! तूने कुछ न किया, भला मेरी किस्मत को तो देखा होता कि इश्क की राह में कैसा मजबूत हूं, तूने तो मेरे हाथ-पैर ही जकड़ डाले। हाय! जिसको पैदा करके तूने हर तरह का सुख दिया उसका दिल दुखाने और उसको खराब करने में तुझे क्या मज़ा मिलता है?’’

ऐसी-ऐसी बातें करते हुए कुंवर वीरेन्द्रसिंह की आंखों से आंसू ज़ारी थे और लम्बी-लम्बी सांसे ले रहे थे। लगभग आधी रात जा चुकी थी। जिस कोठरी में कुमार कैद थे उसके सामने सजे हुए दालान में चार-पांच शीशे जल रहे थे, कुमार का जी घबराया, सिर उठाकर उस तरफ देखने लगे। एकबारगी पांच-सात लौंडियां एक तरफ निकल आईं और हांडी, डोल, दीवारगीर, झाड़ बैठकी, कंबल, मदृंगी वगैरह शीशों को जलाया जिनकी रोशनी से एकदम दिन-सा हो गया। इसके बाद दालान के बीचों बीच एक बेशकीमती गद्दी बिछाई और तब सब लौंडियां खड़ी होकर एकदम दरवाज़े की तरफ देखने लगीं मानों किसी के आने का इंतजार कर रही हों। कुमार बड़े गौर से देख रहे थे, क्योंकि इनको इस बात का बड़ा ताज्जुब था कि वे महल के अन्दर जहां मर्दों की बू तक नहीं जा सकती, क्यों कैद किये गये और इसमें राजा शिवदत्त ने क्या फायदा सोचा?

थोड़ी देर बाद महाराज शिवदत्त अजब ठाट से आते दिखाई पड़े, जिनको देखते ही वीरेन्द्रसिंह चौंक पड़े। अजब हालत हो गई, एकटक देखने लगे। देखा कि महाराज शिवदत्त के दाहिनी तरफ चन्द्रकान्ता और बायीं तरफ चपला हैं, दोनों के हाथों में हाथ दिये धीरे-धीरे आकर उस गद्दी पर बैठ गये जो बीच में बिछी हुई थी। चन्द्रकान्ता और चपला भी दोनों तरफ साथ सट कर महाराज के पास बैठ गईं।

चन्द्रकान्ता और कुमार का साथ तो लड़कपन से ही था मगर आज चन्द्रकान्ता की खूबसूरती और नज़ाकत जितनी बढ़ी-चढ़ी थी इसके पहिले कुमार ने कभी नहीं देखी थी। सामने पानदान, इत्रदान वगैरह सब ऐश का सामान रखा हुआ था।

यह देख कुमार की आंखों में खून उतर आया, जी में सोचने लगे, ‘‘यह क्या हो गया? चन्द्रकान्ता इस तरह खुशी-खुशी शिवदत्त के बगल में बैठी हुई है हाव-भाव कर रही है, यह क्या मामला है? क्या मेरी मुहब्बत एकदम उसके दिल से जाती रही, साथ ही मां-बाप की मुहब्बत भी बिल्कुल उड़ गई? जिसमें मेरे सामने यह कैफ़ियत है? क्या वह यह नहीं जानती कि उसके सामने ही मैं इस कोठरी में कैदियों की तरह पड़ा हुआ हूं? ज़रूर जानती होगी, वह देखो, मेरी तरफ तिरछी आंखों से मुंह बिचका रही है। साथ ही इसके चपला को क्या हो गया जो तेजसिंह पर जी दिए बैठी थी और हथेली पर जान रख महाराज शिवदत्त को छकाकर तेजसिंह को छुड़ा ले गई थी। उस वक़्त महाराज शिवदत्त की मुहब्बत इसको न हुई और आज इस तरह अपनी मालकिन चन्द्रकान्ता के साथ बराबरी के दर्जे पर शिवदत्त के बगल में बैठी है। हाय, हाय! स्त्रियों का कुछ ठिकाना नहीं, इन पर भरोसा करना बड़ी भारी भूल है। हाय! क्या मेरी किस्मत में ऐसी ही औरत से मुहब्बत होनी लिखी है! ऐसे ऊंचे कुल की लड़की ऐसा काम करे? हाय! अब मेरा जीना व्यर्थ है, मैं ज़रूर अपनी जान दे दूंगा, मगर क्या चन्द्रकान्ता और चपला को शिवदत्त के लिए जीता छोड़ दूंगा? कभी नहीं। यह ठीक है कि वीर पुरुष स्त्रियों पर हाथ नहीं छोड़ते, पर मुझको अब वीरता दिखानी नहीं, दुनिया में किसी के सामने मुंह करना नहीं है, मुझको यह सब सोचने से क्या फायदा? अब यही मुनासिब है कि इन दोनों को मार डालना और पीछे अपनी भी जान दे देना। तेजसिंह भी ज़रूर मेरा साथ देंगे, चलो अब बखेड़ा ही तय कर डालो!!’’

इतने में इठलाकर चन्द्रकान्ता ने महाराज शिवदत्त के गले में बांहें डाल दीं, अब तो वीरेन्द्रसिंह सह न सके। जोर से झटका दे हथकड़ी तोड़ डालीं, उसी जोश में एक लात सींखचे वाले किवाड़ में मारी और पल्ला गिरा शिवदत्त के पास जा पहुंचे। उसके सामने जो तलवार रखी थी उसे उठा लिया और खींचकर एक हाथ चन्द्रकान्ता पर ऐसा चलाया कि खट से सिर अलग जा गिरा, और धड़ तड़पने लगा, जब तक महाराज शिवदत्त सम्हले तब तक चपला के भी दो टुकड़े कर दिये, मगर महाराज शिवदत्त पर वार न किया।

महाराज शिवदत्त सम्हल कर उठ खड़े हुए, एकाएक इस तरह की ताकत और तेजी कुमार की देख सकते में आ गये, मुंह से आवाज़ तक न निकली, जवां-मर्दी हवा खाने चली गई, सामने खड़े होकर कुमार का मुंह देखने लगे।

कुंवर वीरेन्द्रसिंह खून भरी नंगी तलवार लिये खड़े ही थे कि तेजसिंह और देवीसिंह धम्म से सामने आ मौजूद हुए। तेजसिंह ने आवाज़ दी, ‘‘वाह! शाबाश! खूब दिल को सम्हाला!’’ यह कह झट से महाराज शिवदत्त के गले में कमन्द डाल झटका दिया। शिवदत्त की हालत पहले से ही खराब थी, कमन्द से गला घुटते ही जमीन पर गिर पड़े। देवीसिंह ने झट गट्ठर बांध पीठ पर लाद लिया। तेजसिंह ने कुमार की तरफ देखकर कहा, ‘‘मेरे साथ चले आइए, अभी कोई दूसरी बात मत कीजिए, इस वक़्त जो हालत आपकी है मैं खूब जानता हूं।’’

इस वक़्त सिवाय लौंडियों के कोई वहां पर नहीं था। इस तरह का खून खराबा देखकर कई तो बदहवास हो गईं, बाकी जो थीं उन्होंने चूं तक न किया, एकटक देखती ही रह गईं और ये लोग चलते बने।

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