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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान

यह तो मालूम है कि कुमारी चन्द्रकान्ता जीती हैं। मगर कहां हैं, और उस खोह में से क्यों निकल गयीं, वनकन्या कौन है, योगी जी कहां से आये, तेज़सिंह को उन्होंने क्या दिखाया? इत्यादि बातों को सोचते और खयाल दौड़ाते कुमार ने सुबह कर दी, एक घड़ी की नींद नहीं आयी। अभी सवेरा नहीं हुआ था कि पलंग से उतर जल्दी के मारे खुद तेज़सिंह के डेरे में गये। वे अभी तक सोये थे, उन्हें जगाया।

तेज़सिंह ने उठकर कुमार को सलाम किया। जी में समझ ही गये थे वही बात पूछने के लिए कुमार बेताब हैं और इसी से इन्होंने आकर मुझे इतनी जल्दी उठाया है मगर फिर भी पूछा, ‘‘कहिये, क्या है जो इतने सवेरे आप उठे हैं?’’

कुमार : रात भी नींद नहीं आयी, अब जो कुछ कहना हो जल्दी कहो, जी बेचैन है।

तेज़सिंह : अच्छा, आप बैठिये मैं कहता हूं।

कुमार बैठ गये और देवीसिंह तथा ज्योतिषीजी को भी उसी जगह बुलवा भेजा। जब वे आ गये, तेज़सिंह ने कहना शुरू किया, ‘‘यह तो मुझे अभी तक मालूम नहीं हुआ कि कुमारी चन्द्रकान्ता को कौन ले गया या वह योगी कौन थे और वनकन्या की मदद क्यों करने लगे? मगर उन्होंने जो कुछ दिखाया वह इतने ताज्जुब की बात थी कि मैं उसे देखने में ही डूबा और योगी जी से कुछ पूछ न सका और वे भी बिना कुछ खुलासा हाल कहे चलते बने। उस दिन पहले-पहल जब मैं आपको खोह में ले गया तब वहां का हाल जो कुछ मैंने अपने गुरुजी से सुना था सो आपसे कहा था याद है?’’

कुमार : बखूबी याद है।

तेज़सिंह : मैंने क्या कहा था?

कुमार : तुमने यही कहा था कि उसमें बड़ा खज़ाना है, मगर उस पर एक छोटा-सा तिलिस्म बंधा हुआ है जो बहुत सहज में टूट सकेगा, क्योंकि उसके तोड़ने की युक्ति तुम्हारे उस्ताद तुम्हें कुछ बता गये हैं।

तेज़सिंह : हां ठीक है, मैंने यही कहा था। उस खोह में मैंने आपको एक दरवाज़ा दो पहाड़ियों के बीच दिखाया था, जिसे योगी ने मुझे इशारे से बताया था। उस दरवाज़े को खुला देख मुझे मालूम हो गया कि उस तिलिस्म को किसी ने तोड़ डाला और वहां का खज़ाना ले लिया, उसी वक़्त मुझे यह खयाल आया कि योगी ने उस दरवाज़े की तरफ इसलिए इशारा किया कि जिसने तिलिस्म तोड़ कर वह खज़ाना लिया है वही कुमारी चन्द्रकान्ता को भी ले गया होगा। इस सोच और तरद्दुद में डूबा हुआ मैं एकटक उस दरवाज़े की तरफ देखता रह गया और योगी महाराज चलते बने।

तेज़सिंह की इतनी बात सुनकर बड़ी देर तक कुमार चुप बैठे रहे, बदहवासी सी आ गयी, इसके बाद सम्हल कर बैठे और बोले–

कुमार : तो कुमारी चन्द्रकान्ता फिर एक नयी बला में फँस गयी?

तेज़सिंह : मालूम तो ऐसा ही पड़ता है।

कुमार : तब इसका पता कैसे लगे? अब क्या करना चाहिए?

तेज़सिंह : पहले तो हम लोगों को उस खोह में चलना चाहिए। वहां चलकर उस तिलिस्म को देखें जिसे तोड़ कर कोई दूसरा वह खज़ाना ले गया है, शायद वहां कुछ मिले या कोई निशान पाया जाये, इसके बाद जो कुछ सलाह होगी किया जायेगा।

कुमार : अच्छा चलो, मगर इस वक़्त एक बात का खयाल और मेरे जी में आता है।

तेज़सिंह : वह क्या?

कुमार : जब बद्रीनाथ को क़ैद करने उस खोह में गये थे और दरवाज़ा न खुलने पर वापस आये, उस वक़्त भी शायद उस दरवाज़े को भीतर से उसी ने बन्द कर लिया हो जिसने उस तिलिस्म को तोड़ा है। वह उस वक़्त उसके अन्दर रहा होगा।

तेज़सिंह : आपका खयाल ठीक है, ज़रूर यही बात है, इसमें कोई शक नहीं। बल्कि उसी ने शिवदत्त को भी छुड़ाया होगा।

कुमार : हो सकता है, मगर जब छूटने पर शिवदत्त ने बेईमानी पर कमर बांधी और पीछे मेरे लश्कर पर धावा मारा तो क्या उसी ने फिर शिवदत्त को गिरफ्तार करके उसके खोह में डाल दिया? और क्या वह पुर्जा भी उसी का लिखा था जो शिवदत्त के गायब होने के बाद उसके पलंग पर मिला था?

तेज़सिंह : हो सकता है।

कुमार : इससे तो मालूम होता है कि वह हमारा दोस्त भी है, मगर दोस्त है तो फिर कुमारी को क्यों ले गया?

तेज़सिंह : इसका जवाब देना मुश्किल है, कुछ अक्ल काम नहीं करती, सिवाय इसके शिवदत्त के छूटने के बाद भी तो आपको उस खोह में जाने का मौका पड़ा था और हम लोग भी आपको खोजते हुए उस खोह में पहुंचे, उस वक़्त चपला ने तो नहीं कहा कि इस खोह में कोई आया था जिसने शिवदत्त को एक दफे छुड़ा के फिर क़ैद कर लिया। उसने इसका कोई जिक्र नहीं किया, बल्कि उसने तो कहा था कि हम शिवदत्त को बराबर इसी खोह में देखते हैं, न उसने और कोई खौफ की बात बतायी।

कुमार : मामला तो बहुत ही पेंचीदा मालूम पड़ता है, मगर तुम भी कुछ गलती कर गये।

तेज़सिंह : मैंने क्या गलती की?

कुमार : कल योगी ने दीवार से निकलकर मुझे कूदने से रोका, इसके बाद ज़मीन पर लात मारी और वहां की ज़मीन फट गई और वनकन्या निकल आई, तो योगी कोई देवता तो थे नहीं कि लात मार के ज़मीन फाड़ डालते। ज़रूर वहां की ज़मीन के अन्दर कोई रहस्य है। तुम्हें भी मुनासिब था कि उसी तरह लात मारके देखते कि ज़मीन फटती है या नहीं।

तेज़सिंह : ठीक है। चलिये।

आज फिर कुमार और तीनों ऐयार उस तिलिस्म में गये। मामूली राह से घूमते हुए उसी दलान में पहुंचे जहां योगी निकले थे। जाकर देखा तो वे दोनों सड़ी और जानवरों की खाई हुई लाशें वहां न थीं, ज़मीन धोई साफ मालूम पड़ती थी। थोड़ी देर तक ताज्जुब से भरे ये लोग खड़े रहे, इसके बाद तेज़सिंह ने गौर करके उसी जगह ज़ोर से लात मारी जहां योगी ने लात मारी थी।

फौरन उसी जगह से ज़मीन फट गई और नीचे उतरने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियां नज़र पड़ीं। खुशी-खुशी ये चारों आदमी नीचे उतरे। वहां एक अंधेरी कोठरी में घूम-घूम कर इन लोगों को कोई दूसरा दरवाज़ा खोजना पड़ा मगर पता न लगा। लाचार होकर फिर बाहर निकल आये, लेकिन वह फटी हुई ज़मीन फिर न जुटी, उसी तरह खुली रह गयी। तेज़सिंह ने कहा, ‘‘मालूम होता है कि भीतर से बन्द करने की कोई युक्ति इसमें भी है जो हम लोगों को मालूम नहीं, खैर जो भी हो काम कुछ न निकला अब बिना बाहर की राह इस खोज में आये कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा। चारों आदमी तिलिस्म के बाहर हुए। तेज़सिंह ने ताला बन्द कर दिया।* (*जिस चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था उसके सिहराने की तरफ दो पत्थर रख कर ताला बन्द कर देते थे।। वही तिसिल्म का मुंह बन्द कर देना या ताला बन्द कर देना था, फिर कोई खोल नहीं सकता था।)

एक रोज़ टिक कर कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह सेनापति को नायब मुकर्रर करके चुनार भेज देने के बाद नौगढ़ की तरफ कूच किया और वहां पहुंच कर अपने पिता से मुलाकात की। राजा सुरेन्द्रसिंह के इशारे पर जीतसिंह ने रात को एकान्त में तिलिस्म का हाल कुंवर वीरेन्द्रसिंह से पूछा। उसके जवाब में जो कुछ ठीक-ठीक हाल था, कुमार ने उनसे कहा।

जीतसिंह ने उसी जगह तेज़सिंह को बुलवा कर कहा, ‘‘तुम दोनों ऐयार कुमार को साथ लेकर खोह में जाओ और उस छोटे तिलिस्म को कुमार के हाथ से फतह करवाओ जिसका हाल तुम्हारे उस्ताद ने तुमसे कहा था। जो कुछ हुआ है सब इसी बीच में खुल जायेगा। लेकिन तिलिस्म फतह करने के पहले दो काम करो, एक तो थोड़े आदमी ले जाओ और महाराज शिवदत्त को उनकी रानी समेत भेजवा दो, दूसरे जब खोह के अन्दर जाना तो दरवाज़ा भीतर से बन्द कर लेना। अब महाराज से मुलाकात करने और कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं, तुम लोग इसी वक़्त यहां से कूच कर जाओ और रानी के वास्ते एक डोली भी साथ लिवाते जाओ।’’

कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने तीनों ऐयारों और थोड़े से आदमियों को साथ ले खोह की तरफ कूच किया। सुबह होते-होते ये लोग वहां पहुंचे। सिपाहियों को कुछ दूर छोड़ चारों आदमी खोह का दरवाज़ा खोल कर अन्दर गये।

सवेरा हो गया था, तेज़सिंह ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को खोह के बाहर लाकर सिपाहियों के सुपुर्द किया और महाराज शिवदत्त को पैदल और उनकी रानी को डोली पर चढ़ाकर जल्दी नौगढ़ पहुंचाने के लिए ताकीद करके फिर खोह के अन्दर पहुंचे।

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