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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


राजा सुरेन्द्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुंचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों के रहने के लिए सुन्दर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी-बेड़ी खोल दी गयी, मगर हिफाज़त के लिए मकान के चारों तरफ सख्त पहरा मुकर्रर कर दिया गया।

दूसरे दिन राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह आपस में कुछ राय करके पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल इन चारों क़ैदी ऐयारों को साथ ले उस मकान में गये जिसमें महाराज शिवदत्त और उनकी महारानी को रक्खा था।

राजा सुरेन्द्रसिंह के आने की खबर सुनकर महाराज शिवदत्त अपनी रानी को साथ लेकर दरवाज़े तक इस्तकबाल (आगवानी) के लिए आये और मकान में ले जाकर आदर के साथ बैठाया, इसके बाद खुद दोनों आदमी सामने बैठे। हथकड़ी और बेड़ी पहने ऐयार सभी एक तरफ बैठाये गये। महाराज शिवदत्त ने पूछा, ‘‘इस वक़्त आपने किसलिए तकलीफ की?

राजा सुरेन्द्रसिंह ने इसके जवाब में कहा, ‘‘आज तक आपके जी में जो कुछ आया, किया, क्रूरसिंह के बहकाने से हम लोगों को तकलीफ देने के लिए बहुत कुछ उपाय किये, धोखा दिया, लड़ाई ठानी मगर अभी तक परमेश्वर ने हम लोगों की रक्षा की। क्रूरसिंह, नाज़िम और अहमद भी अपनी सजा को पहुंच गये और हम लोगों की बुराई सोचते-सोचते ही मर गये। अब आपका क्या इरादा है? इसी तरह क़ैद में पड़े रहना मंजूर है या और कुछ सोचा है?’’

महाराज शिवदत्त ने कहा, ‘‘आपकी और कुंवर वीरेन्द्रसिंह की बहादुरी में कोई शक नहीं, जहां तक तारीफ की जाये थोड़ी है। परमेश्वर आपको खुश रखे और पोते का मुख दिखाये। उसे गोद में लेकर आप खिलायें! मैंने कुछ किया उसको आप माफ करें। मुझे राज्य की बिलकुल अभिलाषा नहीं है। चुनार को आपने जिस तरह फतह किया और वहां जो कुछ हुआ मुझे मालूम है। मैं अब सिर्फ एक बात चाहता हूँ, परमेश्वर के लिए तथा अपनी जवांमर्दी और बहादुरी की तरफ खयाल करके मेरी इच्छा पूरी कीजिए। इतना कह हाथ जोड़ कर सामने खड़े हो गये।

राजा सुरेन्द्रसिंह : जो कुछ आपके जी में हो कहिये जहां तक हो सकेगा मैं उसको पूरा करूंगा।

शिवदत्त : जो कुछ मैं कहता हूं आप सुन लीजिए। मेरे आगे कोई लड़का नहीं है जिसकी मुझे फिक्र हो, हां, चुनार के किले में मेरे रिश्तेदारों की कई बेवाएँ हैं जिनकी परवरिश मेरी ही सबब से होती थी, उनके लिए आप कोई ऐसा बन्दोबस्त कर दें जिससे उन बेचारियों की ज़िन्दगी आराम से गुज़रे। और भी रिश्तें के कई आदमी हैं, लेकिन मैं उनके लिए सिफारिश नहीं करूंगा बल्कि उनका नाम भी न बतलाऊंगा, क्योंकि वे मर्द हैं हर तरह से कमा-खा सकते हैं, और हमको अब आप क़ैद से छुट्टी दीजिए। अपनी स्त्री को साथ ले जंगल में चला जाऊँगा, किसी जगह बैठकर ईश्वर का नाम लूँगा, अब मुँह किसी को दिखाना नहीं चाहता, बस और कोई आरजू नहीं है!

सुरेन्द्रसिंह : आपके रिश्ते की जितनी औरतें चुनार में हैं सभी की अच्छी तरह से परवरिश होगी, उनके लिए आपको कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है, मगर आपको छोड़ देने में कई बातों का खयाल है।

शिव : कुछ नहीं, (जनेऊ हाथ में लेकर) मैं धर्म की कसम खाता हूं, अब जी में किसी तरह की बुराई नहीं है, कभी आपकी बुराई न सोचूंगा।

सुरेन्द्र : अभी आपकी उम्र भी इस लायक नहीं हुई है कि आप तपस्या करें।

शिव : जो हो, अगर आप बहादुर हैं, तो मुझे छोड़ दीजिए।

सुरेन्द्र : आपकी कसम का तो मुझे कोई भरोसा नहीं, मगर आप जो यह कहते हैं कि अगर बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दें तो मैं छोड़ देता हूं, जहां जी चाहे जाइये और जो कुछ आपको खर्च के लिए चाहिए, ले लीजिये।

शिव : मुझे खर्च की कोई ज़रूरत नहीं बल्कि रानी के बदन पर जो कुछ ज़ेवर हैं वह भी उतार के दिये जाता हूं। यह कहकर रानी की तरफ देखा, उस बेचारी ने फौरन अपने बदन के सारे गहने उतार दिये।

सुरेन्द्र : रानी के बदन से गहने उतरवा दिये यह अच्छा नहीं किया।

शिव : जब हम लोग जंगल में ही रहना चाहते हैं तो यह हत्या क्यों लिये जायें? क्या चोरों और डकौतों के हाथों से तकलीफ उठाने के लिए और रात भर सुख की नींद न सोने के लिए?

सुरेन्द्र : (उदासी से) देखो शिवदत्तसिंह, तुम हाल ही तक चुनार की गद्दी के मालिक थे, आज तुम्हारा इस तरह से जाना मुझे बुरा मालूम होता है। चाहे तुम हमारे दुश्मन थे, तो भी मुझको इस बेचारी तुम्हारी रानी पर दया आती है। मैंने तो तुम्हें छोड़ दिया, चाहे जहां जाओ, मगर एक दफे फिर कहता हूं कि अगर तुम यहां रहना कबूल करो तो मेरे राज्य का कोई काम जो चाहो मैं खुशी से तुमको दूं, तुम यहीं रहो।

शिव : नहीं अब यहां न रहूंगा, मुझे छुट्टी दे दीजिये। इस मकान के चारों तरफ से पहरा हटा दीजिए, रात को जब मेरा जी चाहेगा चला जाऊंगा।

सुरेन्द्र : अच्छा, जैसी तुम्हारी मर्जी।

महाराज शिवदत्त के चारों ऐयार चुपचाप बैठे सब बातें सुन रहे थे। बात खत्म होने पर दोनों राजाओं के चुप हो होने के बाद महाराज शिवदत्त की तरफ देखकर पंडित बद्रीनाथ ने कहा, ‘‘आप तो अब तपस्या करने जाते हैं हम लोगों के लिए क्या हुक्म होता है?’’

शिव : जो तुम लोगों के जी में आये वो करो, जहां चाहो जाओ, हमने अपनी तरफ से तुम लोगों को छुट्टी दे दी, बल्कि अच्छी बात हो कि तुम लोग कुंवर वीरेन्द्रसिंह के साथ रहना पसन्द करो, क्योंकि ऐसा बहादुर और धार्मिक राजा तुम लोगों को न मिलेगा।

बद्रीनाथ : ईश्वर आपको सुखी रक्खे! आज से हम लोग कुंवर वीरेन्द्रसिंह के हुए, आप अपने हाथों से हमारी हथकड़ी-बेड़ी खोल दीजिए, महाराज शिवदत्त ने अपने हाथों से चारों ऐयारों की हथकड़ी-बेड़ी खोल दी राजा सुरेन्द्रसिंह और तेज़सिंह ने कुछ भी न कहा कि आप इनकी बेड़ी क्यों खोलते हैं। हथकड़ी-बेड़ी खुलने के बाद चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा कर जा खड़े हुए। जीतसिंह ने कहा, ‘‘अभी एक दफे आप लोग चारों ऐयार मेरे सामने आइये, फिर वहां जाकर खड़े होइये, पहले अपनी मामूली सी रस्म तो अदा कर लीजिए।’’

मुस्कुराते हुए पं. बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल जीतसिंह के सामने आये और बिना कहे जनेऊ और ऐयारी का बटुआ हाथ में लेकर कसम खाकर बोले, ‘‘आज से मैं राजा सुरेन्द्रसिंह और उनके खानदान का नौकर हुआ। ईमानदारी और मेहनत से अपना काम करूंगा। तेज़सिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अपना भाई समझूंगा। बस, अब तो रस्म पूरी हो गई?’’

‘‘बस, और कुछ बाकी नहीं।’’ इतना कहकर जीतसिंह ने चारों को गले से लगा लिया, फिर से चारों ऐयार सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए।

राजा सुरेन्द्रसिंह ने महाराज शिवदत्त से कहा, ‘‘अच्छा अब मैं विदा होता हूं। पहरा अभी उठाता हूं। रात को जब जी चाहे चले जाना मगर आओ गले तो मिल लें।’’

शिव : (हाथ जोड़कर) नहीं, मैं इस लायक नहीं रहा कि आपसे गले मिलूं।

‘‘नहीं, ज़रूर ऐसा करना होगा!’’ कहकर सुरेन्द्रसिंह ने शिवदत्त को जबरदस्ती गले लगा लिया और उदास मुख से विदा हो अपने महल की तरफ रवाना हुए। मकान के चारों तरफ से पहरा उठाते गये।

जीतसिंह, बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को साथ लिये राजा सुरेन्द्रसिंह अपने दीवान खाने में जाकर बैठे। घण्टों महाराज शिवदत्त के बारे में अफसोस भरी बातचीत होती रही। मौका पाकर जीतसिंह ने अर्ज़ किया, ‘‘अब तो हमारे दरबार में और चार ऐयार हो गये हैं जिसकी बहुत ही खुशी है। अगर ताबेदार को पन्द्रह दिन की छुट्टी मिल जाती तो अच्छी बात थी, यहां से दूर बिरादरी में कुछ काम है, जाना ज़रूरी है।’’

सुरेन्द्र : इधर एक-एक दो-दो रोज़ की कई दफे तुम छुट्टी ले चुके हो।

जीतसिंह : जी हां, घर ही में कुछ खास काम था, मगर अबकी तो दूर जाना है इसलिए पन्द्रह दिन की छुट्टी मांगता हूं। मेरी जगह पं. बद्रीनाथ काम करेंगे, किसी बात का हर्ज़ न होगा।

सुरेन्द्र : अच्छा जाओ, लेकिन जहां तक हो सके जल्द आना।

राजा सुरेन्द्रसिंह से विदा हो जीतसिंह अपने घर गये और बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को भी कुछ समझाने-बुझाने के लिए साथ लेते गये।

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