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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

तेरहवाँ बयान


सन्ध्या होने में अभी दो घण्टे से ज्यादे देर है, मगर सूर्य भगवान पहाड़ की आड़ में हो गये, इसलिए, उस स्थान में जिसमें किशोरी, कामिनी और कमला हैं, पूरब तरफवाली पहाड़ी के ऊपरी हिस्से के सिवाय और कहीं धूप नहीं है। समय अच्छा और स्थान बहुत ही रमणीक मालूम पड़ता है। भैरोसिंह एक पेड़ के नीचे बैठे हुए कुछ बना रहे हैं, और किशोरी, कामिनी तथा कमला बंगले से कुछ दूर एक पत्थर की चट्टान पर बैठी बातें कर रही हैं।

कमला ने कहा, ‘‘बैठे-बैठे मेरा जी घबड़ा रहा गया!’’

कामिनी : तो तुम भी भैरोसिंह के पास जा बैठो और पेड़ की छाल छील-छीलकर रस्सी बाँटो।

कमला : जी, मैं ऐसे गन्दे काम नहीं करती। मेरा मतलब यह था कि अगर हुक्म हो तो मैं इस पहाड़ी के बाहर जाकर इधर-उधर का पता लगाऊँ कि राजा गोपालसिंह के दिल से लक्ष्मीदेवी की मुहब्बत एकदम क्यों जाती रही, जो आज तक उस बेचारी को पूछने के लिए एक चिड़िया का बच्चा भी नहीं भेजा।

किशोरी : बहिन इस बात का तो मुझे बड़ा ही रंज है। मैं सच कहती हूँ कि हम लोगों में से कोई भी ऐसा नहीं है, जो उसके दुःख की बराबरी करे। राजा गोपालसिंह ही की बदौलत उसने जो-जो तकलीफें उठायी, उसे सुनने और याद करने से ही कलेजा काँप जाता है। मगर अफसोस, राजा गोपालसिंह ने उसकी कुछ भी कदर न की।

कामिनी : मुझे सबसे ज्यादा केवल इस बात का ध्यान रहता है कि बेचारी लक्ष्मीदेवी ने जो-जो कष्ट सहे हैं, उन सभों से बढ़कर उसके लिए यह दुःख है कि राजा गोपालसिंह ने पता लग जाने पर भी उसकी कुछ सुध न ली। सब दुःखों को तो वह सह गयी, मगर यह दुःख उससे सहे न सहा जायगा। हाय हाय, गोपालसिंह का भी कैसा पत्थर का कलेजा है!

किशोरी : ऐसी मुसीबत कहीं मुझे सहनी पड़ती तो मैं पल-भर भी इस दुनियाँ में न रहती। क्या जमाने से मुहब्बत एकदम जाती रही? या राजा गोपालसिंह ने लक्ष्मीदेवी में कोई ऐब देखा लिया है?

कमला : राम राम, वह बेचारी ऐसी नहीं है कि किसी ऐब को अपने पास आने दे। देखो, अपनी छोटी बहिन की लौंडी बनकर मुसीबत के दिन किस ढंग से बिताये। मगर उसके पवित्र धर्म का नतीजा कुछ न निकला।

किशोरी : इस दुःख से बढ़कर दुनिया में कोई भी दुःख नहीं है। (पेड़ पर बैठे हुए एक काले कौवे की तरफ इशारा करके) देखो बहिन, यह काग हमीं लोगों की तरफ मुँह करके बार-बार बोल रहा है (जमीन पर से एक तिनका उठाकर) यह कहता है कि तुम्हारा कोई प्रेमी यहाँ चला आ रहा है।

कामिनी : (ताज्जुब से) सो तुम्हें कैसे मालूम? क्या कौवे की बोली तुम पहिचानती हो, या इस तिनके में कुछ लिखा है, या यों ही दिल्लगी करती हो?

किशोरी : मैं दिल्लगी नहीं करती सच कहती हूँ, इसका पहिचानना कोई मुश्किल बात नहीं है।

कामिनी : बहिन मुझे भी बताओ। तुम्हें इसकी तरकीब किसने सिखायी थी?

किशोरी : मेरी माँ ने मुझे एक श्लोक याद करा दिया था। उसका मतलब यह है कि जब कौवे (काग) की बोली सुने तो एक बड़ा-सा साफ तिनका जमीन पर से उठा ले और अपनी उँगलियों से नापके देखे कि कै अँगुल का है, जै अंगुल हो, उसमें तेरह और मिलाकर सात-सात करके जहाँ तक उसमें से निकल सके और जो कुछ बचे उसका हिसाब लगाये। एक बचे तो लाभ होगा, दो बचे कुछ नुकसान होगा, तीन बचे तो सुख मिलेगा, चार बचे तो भोजन की कोई चीज मिलेगी, पाँच बचे तो किसी मित्र का दर्शन होगा, छः बचे तो कलह होगी, सात बचे या यों कहो कि कुछ भी न बचे तो समझो कि अपना या अपने किसी प्रेमी का मरना होगा, बस इतना ही तो हिसाब है।

कामिनी : तुम तो इतना कह गयी, लेकिन मेरी समझ में कुछ भी न आया। यह तिनका तो तुमने अंगुली से नापा है, इसका हिसाब करके समझा दो तो समझ जाऊँगी।

किशोरी : अच्छा देखो, यह तिनका जो मैंने नापा था छः अंगुल का है, इसमें तेरह मिला दिया तो कितना हुआ।

कामिनी : उन्नीस हुआ।

किशोरी : अच्छा, इसमें से कै सात निकल सकते हैं?

कामिनी : (सोचकर) सात और सात चौदह, दो सात निकल गये और पाँच बचे। अच्छा अब मैं समझ गयी, तुम अभी कह चुकी हो कि अगर पाँच बचे तो किसी मित्र का दर्शन हो। अच्छा अब वह श्लोक सुना दो, क्योंकि श्लोक बड़ी जल्दी याद हो जाया करता है।

किशोरी : सुनो–

काकस्य वचन श्रुत्वा ग्रहीत्वा तृणमुत्तमम्,

त्रयोदश समायुक्ता मुनिभिः भागमाचरेत्

१     २     ३     ४       ५

लाभ कष्ट महासौख्य भोजनं प्रियदर्शनम्

६    ७

कलहो मरणं चैव काको बदति नान्यथा।।   

कमला : (हँसकर) श्लोक तो अशुद्ध है!

किशोरी : अच्छा-अच्छा रहने दीजिये, अशुद्ध है तो तुम्हारी बला से, तुम बड़ी पण्डित बनकर आयी हो तो अपना शुद्ध करा लेना!

कामिनी : (कमला से) खैर, तुम्हारे कहने से मान लिया जाय कि श्लोक अशुद्ध है, मगर उसका मतलब तो अशुद्ध नहीं है।

कमला : नहीं नहीं, मतलब को कौन अशुद्ध कहता है, मतलब तो ठीक और सच है।

कामिनी : तो बस फिर हो चुका। बीवी दुनिया में श्लोक की बड़ी कदर होती है, पण्डित लोग अगर कोई झूठी बात भी समझाना चाहते हैं, तो झट श्लोक बनाकर पढ़ देते हैं, सुननेवाले को विश्वास हो जाता है, और यह तो वास्तव में सच्चा श्लोक है।

कामिनी ने इतना कहा ही था, कि सामने से किसी को आते देख चौंक पड़ी और बोली, ‘आहा हा, देखो किशोरी बहिन की बात कैसी सच निकली! लो कमला रानी देख लो ओर अपना कान पकड़ों!’’

जिस जगह किशोरी, कामिनी और कमला बैठी बातें कर रही थीं, उसके सामने ही की तरफ इस स्थान में आने का रास्ता था। यकायक जिस पर निगाह पड़ने से कामिनी चौंकी वही लक्ष्मीदेवी थी, उसके बाद कमलिनी और लाडिली दिखायी पड़ी और सबके बाद इन्द्रदेव पर नजर पड़ी।

किशोरी : देखो बहिन हमारी बात कैसी सच निकली।

कामिनी: बेशक बेशक!

कामिनी : कृष्णाजिन्न सच ही कह गये थे कि उन तीनों को भी यहीं भेजवा दूँगा।

किशोरी : (खड़ी होकर) चलो हम लोग आगे चलकर उन्हें ले आवें।

ये तीनों लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली को देखकर बहुत ही खुश हुईं और वहाँ से उठकर कदम बढ़ाती हुईं उनकी तरफ चलीं। वे तीनों बीचवाले मकान के पास पहुँचने न पायी थीं कि ये सब उनके पास जा पहुँची, और इन्द्रदेव को प्रणाम करने के बाद आपुस में बारी-बारी से एक दूसरे के गले मिलीं। भैरोसिंह भी उसी जगह आ पहुँचे और कुशल-क्षेम पूछकर बहुत प्रसन्न हुए इसके बाद सब कोई मिलकर उसी बँगले में आये, जिसमें किशोरी, कामिनी और कमला रहती थीं और इन्द्रदेव बीचवाले दोमंजिले मकान में चले गये, जिसमें भैरोसिंह का डेरा था।

यद्यपि वहाँ खिदमत करने के लिए लौंडियों की कमी न थी तथापि कमला ने अपने हाथ से तरह-तरह की खाने की चीजें तैयार करके सभों को खिलाया-पिलाया और मोहब्बत-भरी हँसी-दिल्लगी की बातों से सभों का दिल बहलाया। रात के समय जब हर एक काम से निश्चिन्त होकर एक कमरे में सब बैठीं तो बातचीत होने लगी।

किशोरी : (लक्ष्मीदेवी से) जमाने ने तो हम लोगों को जुदा कर दिया था, मगर ईश्वर ने कृपा करके बहुत जल्द मिला दिया।

लक्ष्मीदेवी : हाँ, बहिन इसके लिए मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ। मगर मेरी समझ में अभी तक नहीं आता कि कृष्णाजिन्न कौन है, जिसके हुक्म से कोई भी मुँह नहीं मोड़ता। देखो तुम भी उसी की आज्ञानुसार यहाँ पहुँचायी गयीं और हम लोग भी उसकी आज्ञा से यहाँ लाये गये जो हो, मगर इसमें कोई शक नहीं कि कृष्णाजिन्न बहुत ही बुद्धिमान और दूरदर्शी है। यह  सुनकर हम लोगों को बड़ी खुशी हुई कि कृष्णाजिन्न की चालाकियों ने तुम लोगों की जान बचा ली।

कामिनी : यह खबर तुम्हें कब मिली?

लक्ष्मीदेवी : इन्द्रदेवजी जमानिया गये थे। उसी जगह कृष्णाजिन्न की चीठी पहुँची, जिससे सब हाल मालूम हुआ और उसी चीठी के मुताबिक हम लोग यहाँ पहुँचाये गये।

किशोरी : जमानिया गये थे। राजा गोपालसिंह ने बुलाया होगा?

लक्ष्मीदेवी : (ऊँची साँस लेकर) वे क्यों बुलाने लगे थे, उन्हें क्या गर्ज पड़ी थी। हाँ, हमारे पिता का पता लगाने गये थे, सो वहाँ जाने पर कृष्णाजिन्न की चीठी ही से यह भी मालूम हुआ कि भूतनाथ उन्हें छुड़ाकर चुनारगढ़ ले गया। ईश्वर उसका भला करे, भूतनाथ बात का धनी निकला।

किशोरी : (खुश होकर) भूतनाथ ने यह बहुत बड़ा काम किया। फिर भी उसके मुकदमे में बड़ी उलझन निकलेगी।

कामिनी : इसमें क्या शक है?

किशोरी अच्छा तो जमानिया में जाने से और भी किसी का हाल मालूम हुआ?

कमलिनी : हाँ, दोनों कुमारों से दूर की मुलाकात और बातचीत हुई, क्योंकि वे तिलिस्म तोड़ने की कार्रवाई कर रहे थे, और वहीं इन्द्रदेव ने अपनी लड़की इन्दिरा को पाया और अपनी स्त्री सर्यू को भी देखा।

किशोरी : (चौंककर और खुश होकर) यह बड़ा काम हुआ! वे दोनों इतने दिनों तक कहाँ थीं और कैसे मिली?

लक्ष्मीदेवी : वे दोनों तिलिस्मी में फँसी हुई थीं, दोनों कुमारों की बदौलत उनकी जान बची।

इस जगह लक्ष्मीदेवी ने सर्यू और इन्दिरा का किस्सा पूरा-पूरा बयान किया, जिसे सुनकर वे तीनों बहुत प्रसन्न हुईं और कमला ने कहा, ‘‘विश्वासघातियों और दुष्टों के लिए उस समय जमानिया बैकुण्ठ हो रहा था।’’

लक्ष्मीदेवी: तभी तो मुझे ऐसे-ऐसे दुःख भोगने पड़े, जिनसे अभी तक छुटकारा नहीं मिला, मगर मैं नहीं कह सकती कि अब मेरी क्या गति होगी और मुझे क्या करना होगा।

किशोरी : क्या जमानिया में इन्द्रदेव से राजा गोपालसिंह ने तुम्हारे विषय में कोई बातचीत नहीं की?

लक्ष्मीदेवी : कुछ भी नहीं, सिर्फ इतना कहा कि तुम उन तीनों बहिनों को कृष्णाजिन्न की आज्ञानुसार वहाँ पहुँचा दो, जहाँ किशोरी, कामिनी और कमला हैं, वहाँ स्वयं कृष्णाजिन्न जायेंगे, उसी समय जो कुछ वे कहें सो करना। शायद कृष्णाजिन्न उन सभों को यहाँ ले आवें।

कामिनी : (हाथ मलकर) बस!

लक्ष्मीदेवी : बस, और कुछ भी नहीं पूछा और न इन्द्रदेवजी ही ने कुछ कहा, क्योंकि उन्हें भी इस बात का रंज है।

किशोरी : रंज हुआ ही चाहे, जो कोई सुनेगा उसी को इस बात का रंज होगा, वे तो बेचारे तुम्हारे पिता ही के बराबर ठहरे, क्यों न रंज करेंगे! (कमलिनी से) तुम तो अपने जीजाजी के मिजाज की बड़ी तारीफ करती थीं!

कमलिनी : बेशक वे तारीक के लायक हैं, मगर इस मामले में तो मैं आप हैरान हो रही हूँ कि उन्होंने ऐसा क्यों किया! उनके सामने ही दोनों कुमारों ने बड़े शौक से तुम लोगों का हाल इन्द्रदेव से पूछा, और सभों को जमानिया में बुला देने के लिए कहा, मगर उसपर भी राजा साहब ने हमारी दुखिया बहिन को याद न किया, आशा है कि कल तक कृष्णाजिन्न भी यहाँ आ जाँयेंगे, देखें वह क्या करते हैं?

लक्ष्मीदेवी : करेंगे क्या? अगर वह मुझे जमानिया चलने के लिए कहेंगे भी तो मैं इस बेइज्जती के साथ जानेवाली नहीं हूँ। जब मेरा मालिक मुझे पूछता ही नहीं तो मैं कौन सा मुँह लेकर उसके पास जाऊँ, और किस सुख के लिए या किस आशा पर इस शरीर को रक्खूँ!

कमला : नहीं नहीं, तुम्हें इतना रंज न करना चाहिए...

कामिनी : (बात काटकर) रंज क्यों न करना चाहिए! भला इससे बढ़कर भी कोई रंज दुनिया में है! जिसके सबब से और जिसके खयाल से इस बेचारी ने इतने दुःख भोगे और ऐसी अवस्था में रही, वही जब एक बात न पूछे तो कहो रंज ही कि न हो? और नहीं तो इस बात का खयाल करते कि इसी की बहिन या उनकी साली की बदौलत उनकी जान बची नहीं तो दुनिया से उनका नाम-निशान ही उठ गया था!

लाडिली : बहिन, ताज्जुब तो यह कि इनकी खबर न ली तो न सही, अपनी उस अनोखी मायारानी की सूरत तो आकर देख जाते, जिसने उनके साथ...

कामिनी : (जल्दी से) हाँ और क्या? उसे भी देखने न आये! उन्हें तो चाहिए था कि रोहतासगढ़ पहुँचकर उसकी बोटी-बोटी अलग कर देते!

इस तरह से ये सब बड़ी देर तक आपुस में बातें करती रहीं। लक्ष्मीदेवी की अवस्था पर सभों को रंज अफसोस और ताज्जुब था। जब रात ज्यादे बीत गयी तो सभों ने चारपाई की शरण ली दूसरे दिन उन्हें कृष्णाजिन्न के आने की खबर मिली।

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