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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा नीचे जाने लगी, तो रमा ने कतार होकर उसे गले से लगा लिया और इस  तरह भींच-भींचकर उसे आलिंगन करने लगा, मानो यह सौभाग्य उसे फिर न मिलेगा। कौन जानता है, यही उसका अन्तिम आलिंगन हो। उसके कर-पाश मानो रेशम के सहस्त्रों तारों से संगठित होकर जालपा से चिमट गये थे। मानो कोई मरणासन्न कृपण अपने कोष की कुंजी मुट्ठी में बन्द किये हो, और प्रति-क्षण मुट्ठी कठोर पड़ती जाती हो। क्या मुट्टी को बलपूर्वक खोल देने से ही उसके प्राण न निकल जायेंगे?

सहसा जालपा बोली–मुझे कुछ रुपये तो दे दो, वहाँ कुछ ज़रूरत पड़े।

रमा ने चौंककर कहा–रुपये ! रुपये तो इस वक्त नहीं हैं।

जालपा–हैं हैं, मुझसे बहाना कर रहे हो। बस मुझे दो रुपये दे दो, और ज्यादा नहीं चाहती।

यह कहकर उसने रमा की जेब में हाथ डाल दिया, और कुछ पैसे के साथ वह पत्र भी निकाल लिया।

रमा ने हाथ बढ़ाकर पत्र को जालपा के हाथ से छीनने की चेष्ट हुआ कहा–कागज मुझे दे दो, सरकारी कागज है।

जालपा–किसका खत है बता दो?

जालपा ने तय किये हुए पुरजे को खोलकर कहा–यह सरकारी कागज है ! झूठे कहीं के तुम्हारा ही लिखा...

रमानाथ–दे दो, क्यों परेशान करती हो !

रमा ने कागज़ छीन लेना चाहा; पर जालपा ने हाथ पीछे फेरकर कहा–मैं बिना पढ़े न दूँगी। कह दिया ज्यादा जिद करोगे तो फाड़ डालूँगी।

रमानाथ–अच्छा फाड़ डालो।

जालपा–तब तो मैं जरूर पढ़ूँगी।

उसने दो कदम पीछे हटकर फिर खत को खोला और पढ़ने लगी।

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