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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


टिकट बाबू–इस विषय में आप लिखा पढ़ी कर सकते हैं; मगर बिना टिकट के जा नहीं सकते।

रमा ने विनीत भाव से कहा–भाई साहब आपसे क्या छिपाऊँ। मेरे पास और रुपये नहीं हैं। आप जैसा मुनासिब समझें, करें।

टिकट बाबू–मुझे अफसोस है, बाबू साहब, कायदे से मजबूर हूँ।

कमरे के सारे मुसाफिर आपस में कानाफूसी करने लगे। तीसरा दर्जा था, अधिकांश मजदूर बैठे हुए थे, जो मजूरी की टोह में पूरब जा रहे थे। ये एक बाबू जाति के प्राणी को इस भाँति अपमानित होते देखकर आनन्द पा रहे थे। शायद टिकट बाबू ने रमा को धक्के देकर उतार दिया होता, तो और भी खुश होते। रमा के जीवन में कभी इतनी झेंप न हुई थी। चुपचाप सिर झुकाये खड़ा हुआ था। अभी तो जीवन की इस नयी यात्रा का आरम्भ हुआ है। न जाने आगे क्या-क्या विपत्तियाँ झेलनी पड़ेगी। किस-किस के हाथों धोखा खाना पडे़गा उसके जी में आया-गाड़ी से कूद पड़ूँ इस छीछालेदर से तो मर जाना ही अच्छा उसकी आँखें भर आयीं, उसने खिड़की से सिर बाहर निकाल लिया और रोने लगा।

सहसा एक बूढ़े आदमी ने जो उसके पास ही बैठा हुआ था, पूछा कलकत्ते में कहाँ जाओगे बाबूजी?

रमा ने समझा, यह गँवार मुझे बना रहा है, झुँझलाकर बोला–तुमसे मतलब मैं कहीं जाऊँगा !
 
बूढ़े ने इस उपेक्षा पर कुछ भी न दिया बोला–मैं भी वहीं चलूँगा। हमारा-तुम्हारा साथ हो जायेगा। फिर धीरे से बोला किराये के रुपये मुझसे ले लो वहाँ दे देना।

अब रमा ने उसकी ओर ध्यान से देखा। कोई ६०-७० साल का बूढ़ा घुला हुआ आदमी था। मांस तो क्या हड्यियाँ तक गल गयी थीं। मूँछ और सिर के बाल मुड़े हुए थे। एक छोटी सी बकुची के सिवा उसके पास और कोई असबाब भी न था।

रमा को अपनी ओर ताकते देखकर वह फिर बोला–आप हबड़े ही उतरेंगे या और कहीं जायेंगे?

रमा ने एहसान के भार से दबकर कहा–बाबा, आगे मैं उतर पड़ूँगा। रुपये का कोई बन्दोबस्त करके फिर आऊँगा।

बूढ़ा–तुम्हें कितने रुपये चाहिए, मैं भी तो वहीं चल रहा हूँ। जब चाहे दे देना। क्या मेरे दस-पाँच रुपये लेकर भाग जाओगे। कहाँ घर है?

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