उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमानाथ–यहीं प्रयाग में ही में रहता हूँ।
बूढ़े ने भक्ति के भाव से कहा–धन्य है प्रयाग ! धन्य है ! मैं भी त्रिवेणी का स्नान करके आ रहा हूँ, सचमुच देवताओं की पुरी है। तो मैं रुपये निकालूँ?
रमा ने सकुचाते हुए कहा–मैं चलते ही चलते रुपया न दे सकूँगा, यह समझ लो।
बूढ़े ने सरल भाव से कहा–अरे बाबूजी, मेरे दस पाँच रुपये लेकर तुम भाग थोड़े ही जाओगे। मैंने तो देखा, प्रयाग के पण्डे यात्रियों को बिना लिखाये-पढ़ाये रुपये दे देते हैं। दस रुपये में तुम्हारा काम चल जायेगा?
रमा ने सिर झुकाकर कहा–हाँ इतने बहुत हैं।
टिकट बाबू को किराया देकर रमा सोचने लगा–यह कितना सरल, कितना परोपकारी, कितना निष्कपट जीव है। जो लोग सभ्य कहलाते हैं, उनमें कितने आदमी ऐसे निकलेंगे, जो बिना जान-पहचान किसी यात्री को उबार लें। गाड़ी के और मुसाफिर भी बूढ़े को श्रद्धा के नेत्रों से देखने लगे।
रमा को बूढ़े की बातों से मालूम हुआ कि वह जाति का खटिक है, कलकत्ता में उसकी शाक भाजी की दूकान है। रहने वाला तो बिहार का है; पर चालीस साल से कलकत्ते ही में रोजगार कर रहा है। देवीदीन नाम है, बहुत दिनों से तीर्थयात्रा की इच्छा थी, बदरीनाथ की यात्रा करके लौटा जा रहा है।
रमा ने आश्चर्य से कहा–तुम बदरीनाथ की यात्रा कर आये? वहाँ तो पहाड़ों की बड़ी-बड़ी चढ़ाइयाँ हैं।
देवी–भगवान की दया होती है तो सब कुछ हो जाता है, बाबूजी ! दया चाहिए।
रमानाथ–तुम्हारे बाल-बच्चे कलकत्ते ही में होंगे?
देवीदीन ने रूखी हँसी हँसकर कहा–बाल बच्चे तो सब भगवान के घर गये। चार बेटे थे। दो का ब्याह हो गया था। सब चल दिये। मैं बैठा हुआ हूँ। मुझी से तो सब पैदा हुए थे। अपने बोये हुए बीज को किसान ही तो काटता है।
यह कहकर वह फिर हँसा। जरा देर बाद बोला–बुढ़िया अभी जीती है। देखें हम दोनों में पहले कौन चलता है। वह कहती है, पहले मैं जाऊँगी, मैं कहता हूँ पहले मैं जाऊँगा। देखो किसकी टेक रहती है। बन पड़ा तो तुम्हें दिखाऊँगा। अब भी गहने पहनती है। सोने की बालियाँ और सोने की हसली पहने दूकान पर बैठी रहती है। जब कहा कि चल तीर्थ कर आवें तो बोली–तुम्हारे तीर्थ के लिए क्या दूकान मिट्टी में मिला दूँ? यह है जिन्दगानी का हाल। आज मरे कि कल मरे; मगर दूकान न छोड़ेगी। न कोई आगे, न कोई पीछे न कोई रोने वाला, न कोई हँसने वाला; मगर माया बनी हुई है। अब भी एक न एक गहना बनवाती ही रहती है। न जाने कब उसका पेट भरेगा। सब घरों का यही हाल है। जहाँ देखो–हाय गहने हाय गहने ! के पीछे जान दे दें, घर के आदमियों को भूखा मारें, घर की चीजें बेचें। और कहाँ तक कहूँ, अपनी आबरू तक बेच दें। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको यही रोग लगा हुआ है। कलकत्ते में कहाँ काम करते हो भैया?
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