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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमानाथ–अभी तो जा रहा हूँ। देखूँ कोई नौकरी-चाकरी मिलती है या नहीं?

देवी–तो फिर मेरे ही घर ठहरना। दो कोठरियाँ हैं, सामने दालान है, एक कोठरी ऊपर है। आज बेचूँ तो दस हजार मिलें। एक कोठरी तुम्हें दे दूँगा। जब कहीं काम मिल जायेगा, तो अपना घर ले लेना। पचास साल हुए घर से भागकर हाबड़े गया था, तब से सुख भी देखे, दुःख भी देखे। अब मना रहा हूँ, भगवान ले चलो। हाँ, बुढ़िया को अमर कर दो। नहीं, उसकी दूकान कौन लेगा, घर कौन लेगा और गहने कौन लेगा !

यह कहकर देवीदीन फिर हँसा। वह इतना हँसोड़, इतना प्रसन्नचित था कि रमा को आश्चर्य हो रहा था। बेबात की बात पर हँसता था। जिस बात पर और लोग रोते हैं, उस पर उसे हँसी आती थी। किसी जीवन-कथा कह सुनायी। कितने ही लतीफे याद थे। मालूम होता था, रमा से वर्षो की मुलाकात है। रमा को भी अपने विषय में एक मनगढ़न्त कथा कहनी पड़ी।

देवी–तो तुम भी घर से भाग आये हो? समझ गया। घर में झगड़ा हुआ होगा। बहू कहती होगी–मेरे पास गहने नहीं, मेरा नसीबा जल गया। सास-बहू में पटती न होगी। उनका कलह सुन-सुन जी और खट्टा हो गया होगा।

रमा–हाँ, बाबा, बात तो यही है, तुम कैसे जान गये?

देवीदीन हँसकर बोला–यह तो बड़ा भारी मन्त्र है भैया। इसे तेली की खोपड़ी पर जगाया जा सकता है।

अभी लड़के बाले तो नहीं हैं न?

रमा–नहीं, अभी तो नहीं है।

देवी–छोटे भाई भी होंगे?

रमा चकित होकर बोला–हाँ दादा ठीक कहते हो। तुमने कैसे जाना?

देवीदीन फिर ठट्ठा मारकर बोला–यह सब मन्त्रों का खेल है। ससुराल धनी होगी क्यों?

रमा–हाँ, दादा, है तो।

देवी–मगर हिम्मत न होगी।

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