उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
देवीदीन के घर में दो कोठरियाँ थीं और सामने एक बारामदा था। बारामदे में दूकान थी, एक कोठरी में खाना बनता था, दूसरी कोठरी में बरतन-भाँडे रक्खे हुए थे। ऊपर एक कोठरी थी और छोटी-सी खुली हुई छत। रमा इसी ऊपर के हिस्से में रहता था। देवीदीन के रहने, सोने, बैठने का कोई विशेष स्थान न था। रात को दूकान बढ़ाने के बाद वही बरामदा शयन-गृह बन जाता था। दोनों वहीं पड़े रहते थे। देवीदीन का काम चिलम पीना और दिन भर गप्पें लड़ाना था। दूकान का सारा काम बुढ़िया करती थी। मण्डी जाकर माल लाना, स्टेशन से माल भेजना या लाना, यह सब भी वही कर लेती थी। देवीदीन ग्राहकों को पहचानता तक न था। थोड़ी-सी हिन्दी जानता था। बैठा-बैठा रामायण, तोता-मैना, रासलीला या माता मरियम की कहनी पढ़ा करता था। जब से रमा आ गया है, बुड्ढ़े को अँग्रेजी पढ़ने का शौक हो गया है। सवेरे ही प्राइमर लाकर बैठ जाता है और नौ-दस बजे तक अक्षर पढ़ता रहा है। बीच-बीच में लतीफे भी होते जाते हैं, जिनका देवीदीन के पास अखण्ड भण्डार है। मगर जग्गो को रमा का आसन जमाना अच्छा नहीं लगता। वह उसे अपना मुनीम तो बनाये हुए है–हिसाब-किताब उसी से लिखवाती है; पर इतने से काम के लिए वह एक आदमी रखना व्यर्थ समझती है। यह काम तो वह ग्राहकों से यों ही करा लेती थी। उसे रमा का रहना खलता था; पर रमा इतना नम्र, इतना सेवा-तत्पर, इतना धर्मनिष्ठ है कि वह स्पष्ट रूप से कोई आपत्ति नहीं कर सकती। हाँ, दूसरों पर रखकर श्लेष रूप से उसे सुना-सुना कर दिल का गुबार निकालती रहती है। रमा ने अपने को ब्राह्मण कह रक्खा है और उसी धर्म का पालन करता है। ब्राह्मण और धर्मनिष्ठ बनकर वह दोनों प्राणियों का श्रद्धापात्र बन सकता है। बुढ़िया के भाव और व्यवहार को वह खूब समझता है; पर करे क्या? बेहयाई करने पर मजबूर है। परिस्थिति ने उसके आत्मसम्मान का अपहरण कर डाला है।
एक दिन रमानाथ वाचनालय में बैठा हुआ पत्र पढ़ रहा था कि एकाएक उसे रतन दिखायी पड़ गयी। उसके अन्दाज से मालूम होता था कि वह किसी को खोज रही है। बीसों आदमी बैठे पुस्तकें और पत्र पढ़ रहे थे। रमा की छाती धक-धक करने लगी। वह रतन की आँखें बचाकर सिर झुकाये हुए कमरे से निकल गया और पीछे के अँधेरे बरामदे में, जहाँ पुराने टूटे-फूटे सन्दूक और कुर्सियाँ पड़ी हुई थीं, छिपा खड़ा रहा। रतन से मिलने और घर के समाचार पूछने के लिए उसकी आत्मा तड़प रही थी; पर मारे संकोच के सामने न आ सकता था। आह ! कितनी बातें पूछने की थीं ! पर उनमें मुख्य यही थी कि जालपा के विचार उसके विषय में क्या हैं। उसकी निष्ठुरता पर रोती तो नहीं है? उसकी उद्दंडता पर क्षुब्द तो नहीं है? उसे धूर्त और बेईमान तो नहीं समझ रही है? दुबली तो नहीं हो गयी है? और लोगों के क्या भाव हैं? क्या घर की तलाशी हुई? मुकदमा चला? ऐसी ही हजारों बातें जानने के लिए वह विकल हो रहा था; पर मुँह कैसे दिखाये ! वह झांक-झाँककर देखता रहा। जब रतन चली गयी–मोटर चल दिया, तब उसकी जान-में-जान आयी। उस दिन से एक सप्ताह तक वह वाचनालय न गया। घर से निकला तक नहीं।
कभी-कभी पड़े-पड़े रमा का जी ऐसा घबड़ाता कि पुलिस में जाकर सारी कथा कह सुनाये। जो कुछ होना है, हो जाये। साल-दो-साल की कैद इस आजीवन कारावास से तो अच्छी है। फिर वह नये सिरे से जीवन-संग्राम में प्रवेश करेगा, हाथ-पाँव बचाकर काम करेगा, अपनी चादर के बाहर जौ-भर भी पाँव न फैलायेगा; लेकिन एक ही क्षण में हिम्मत टूट जाती।
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