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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


इस प्रकार दो महीने और बीत गये। पूस का महीना आया। रमा के पास जाड़ों का कोई कपड़ा न था। घर से तो वह कोई चीज लाया ही न था, यहाँ भी कोई चीज बनवा न सका था। अब तक तो उसने धोती ओढ़कर किसी तरह रातें काटीं; पर पूस के कड़कड़ाते जाड़े लिहाफ या कम्बल के बगैर कैसे कटते। बेचारा रात भर गठरी बना पड़ा रहता, जब बहुत सर्दी लगती तो, बिछावन ओढ़ लेता। देवीदीन ने उसे एक पुरानी दरी बिछाने को दे दी थी। उसके घर में शायद यही सबसे अच्छा बिछावन था। इस श्रेणी के लोग चाहे दस हज़ार के गहने पहन लें, शादी-ब्याह में दस हजा़र खर्च कर दें, पर बिछावन गूदड़ा ही रक्खेंगे। इस सड़ी हुई दरी से जाड़ा भला क्या जाता; पर कुछ न होने से तो अच्छा ही था। रमा संकोचवश देवीदीन से कुछ कह न सकता था और देवीदीन भी शायद इतना बड़ा खर्च न उठाना चाहता था, या सम्भव है, इधर उसकी निगाह ही न जाती हो। जब दिन ढलने लगता, तो रमा रात के कष्ट की कल्पना से भयभीत हो उठता था, मानो काली बला दौड़ती चली आती हो। रात को बार-बार खिड़की खोलकर देखता कि सवेरा होने में कितनी कसर है।

एक दिन शाम को वह वाचनालय जा रहा था कि उसने देखा, एक बड़ी कोठी के सामने हजारों कँगले जमा हैं। उसने सोचा–यह क्या बात है, क्यों इतने आदमी जमा हैं? भीड़ के अन्दर घुसकर देखा, तो मालूम हुआ, सेठजी कम्बलों का दान कर रहे हैं। कम्बल बहुत घटिया थे, पतले और हलके; पर जनता एक-पर-एक टूटी पड़ती थी। रमा के मन में आया, एक कम्बल ले लूँ। यहाँ मुझे कौन जानता है। अगर कोई जान भी जाये, तो क्या हरज? गरीब ब्राह्मण अगर दान का अधिकारी नहीं तो और कौन है ! लेकिन एक ही क्षण में उसका आत्म-सम्मान जाग उठा। वह कुछ देर वहाँ खड़ा ताकता रहा, फिर आगे बढ़ा। उसके माथे पर तिलक देखकर मुनीम जी ने समझ लिया, यह ब्राह्मण है। इतने सारे कँगलों में ब्राह्मणों की संख्या बहुत कम थी। ब्राह्मणों को दान देने का पुण्य कुछ और ही है। मुनीम मन में प्रसन्न था कि एक ब्राह्मण देवता दिखायी तो दिये ! इसलिए जब उसने रमा को जाते हुए देखा, तो बोला–पण्डितजी, कहाँ चले, कम्बल तो लेते जाइए ! रमा मारे संकोच के गड़ गया। उसके मुँह से केवल इतना ही निकला–मुझे इच्छा नहीं है। यह कहकर वह फिर बढ़ा। मुनीमजी ने समझा, शायद कम्बल घटिया देखकर देवताजी चले जा रहे हैं। ऐसे आत्म-सम्मान वाले देवता उसे अपने जीवन में शायद मिले ही न थे। कोई दूसरा ब्राह्मण होता, तो दो-चार चिकनी-चुपड़ी बातें करता और अच्छे कम्बल माँगता। यह देवता बिना कुछ कहे, निर्व्याज भाव से चले जा रहे हैं, तो  अवश्य कोई त्यागी जीव हैं। उसने लपककर रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला ! आओ तो महाराज, आपके लिए चोखा कम्बल रक्खा है। यह तो कँगलों के लिए है। रमा ने देखा कि बिना माँगे एक चीज़ मिल रही है, जबरदस्ती गले लगायी जा रही है, तो वह दो बार और नहीं-नहीं करके मुनीम के साथ अन्दर चला गया। मुनीम ने उसे कोठी में ले जाकर तख्त पर बैठाया और एक अच्छा-सा दबीज़ कम्बल भेंट किया। रमा की सन्तोष वृत्ति का उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने पाँच रुपये दक्षिणा भी देना चाहा; किन्तु रमा ने उसे लेने से साफ इनकार कर दिया। जन्म-जन्मान्तर की संचित मर्यादा कम्बल  लेकर ही आहत हो उठी थी। दक्षिणा के लिए हाथ फैलाना उसके लिए असम्भव हो गया।

मुनीम ने चकित होकर कहा–आप यह भेंट न स्वीकार करेंगे, तो सेठजी को बड़ा दुःख होगा।

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