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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमा ने विरक्त होकर कहा–आपके आग्रह से मैंने कम्बल ले लिया; पर दक्षिणा नहीं ले सकता। मुझे धन की आवश्यकता नहीं। जिस सज्जन के घर टिका हूँ, वह मुझे भोजन देते हैं। और मुझे लेकर क्या करना है?

‘सेठजी मानेंगे नहीं !’

‘आप मेरी ओर से क्षमा माँग लीजिएगा।’

‘आपके त्याग को धन्य है। ऐसे ही ब्राह्मणों से धर्म की मर्यादा बनी हुई है। कुछ देर बैठिए तो, सेठजी आते होंगे। आपके दर्शन पाकर बहुत प्रसन्न होंगे। ब्राह्मणों के परम भक्त हैं। त्रिकाल सन्ध्या-वन्दन करते हैं महाराज, तीन बजे रात को गंगा-तट पर पहुँच जाते हैं और वहाँ से आकर पूजा पर बैठ जाते हैं। दस बजे भागवत का पारायण करते हैं। मध्याह्न को भोजन पाते हैं, तब कोठी में आते हैं। तीन-चार बजे फिर सन्ध्या करने चले जाते हैं। आठ बजे थोड़ी देर के लिए फिर आते हैं। नौ बजे ठाकुरद्वारे में कीर्तन सुनते हैं और फिर सन्ध्या करके भोजन पाते हैं। थोड़ी देर में आते ही होंगे। आप कुछ देर बैठें, तो बड़ा अच्छा हो। आपका स्थान कहाँ है।’

रमा ने प्रयाग न बताकर काशी बतलाया। इस पर मुनीमजी का आग्रह और बढ़ा; पर रमा को यह शंका हो रही थी कि कहीं सेठजी ने कोई धार्मिक प्रसंग छेड़ दिया, तो सारी कलई खुल जायेगी। किसी दूसरे दिन आने का वचन देकर उसने पिंड छुड़ाया।

नौ बजे वह वाचनालय से लौटा, तो डर रहा था कि कहीं देवीदीन ने कम्बल देखकर पूछा–कहाँ से लाये, तो क्या जवाब दूँगा। कोई बहाना कर दूँगा। कह दूँगा, एक पहचान की दुकान से उधार लाया हूँ।
देवीदीन ने कम्बल देखते ही पूछा–सेठ करोड़ीमल के यहाँ पहुँच गये थे क्या महाराज?

रमा ने पूछा–कौन सेठ करोड़ीमल?

‘अरे वही, जिसकी वह बड़ी लाल कोठी है।’

रमा कोई बहाना न कर सका। बोला–हाँ, मुनीमजी ने पिंड ही न छोड़ा। बड़ा धर्मात्मा जीव है।

देवीदीन ने मुस्कराकर कहा–बड़ा धर्मात्मा ! उसी के थामें तो यह धरती थमी है, नहीं तो अब तक मिट गयी होती !

रमा–काम तो धर्मात्माओं के ही करता है, मन का हाल ईश्वर जाने। जो सारे दिन पूजापाठ और दान-व्रत में लगा रहे, उसे धर्मात्मा नहीं तो और क्या कहा जाये।

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