उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
देवी–उसे पापी कहना चाहिए, महापापी। दया तो उसके पास से होकर भी नहीं निकली। उसकी जूट की मिल है। मजदूरों के साथ जितनी निर्दयता इसकी मिल में होती है, और कहीं नहीं होती। आदमियों को हंटरों से पिटवाता है, हंटरों से। चरबी मिला घी बेचकर इसने लाखों कमा लिये। कोई नौकर एक मिनट की भी देर करे तो तुरन्त तलब काट लेता है। अगर साल में दो-चार हज़ार दान न कर दे, तो पाप का धन पचे कैसे ! धर्म-कर्म वाले ब्राह्मण तो उसके द्वारे पर झाँकते भी नहीं। तुम्हारे सिवा वहाँ कोई पण्डित था?
रमा ने सिर हिलाया।
‘कोई जाता ही नहीं। हाँ लोभी-लम्पट पहुँच जाते हैं। जितने पुजारी देखे, सबको पत्थर ही पाया। पत्थर पूजते-पूजते इनके दिल भी पत्थर हो जाते हैं। इसके तीन तो बड़े-बड़े धर्मशाले हैं, मुदा है पाखण्डी। आदमी चाहे और कुछ न हो, मन में दया बनाये रक्खे। यही सौ धरम का एक धरम है।’
दिन की रक्खी हुई रोटियाँ खाकर जब रमा कम्बल ओढ़कर लेटा, तो उसे बड़ी ग्लानि होने लगी। रिश्वत में उसने हजारों रुपये मारे थे; पर कभी एक क्षण के लिये भी उसे ग्लानि न आयी थी। रिश्वत बुद्धि से, कौशल से, पुरुषार्थ से मिलती है। दान पौरुषहीन, कर्महीन या पाखण्डियों का आधार है। वह सोच रहा था–मैं अब इतना दीन हूँ कि भोजन और वस्त्र के लिए मुझे दान लेना पड़ता है ! वह देवीदीन के घर दो महीने से पड़ा हुआ था; पर देवीदीन उसे भिक्षुक नहीं, मेहमान समझता था। उसके मन में कभी दान का भाव आया ही न था। रमा के मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इसी दम थाने जाकर अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाये। यही न होगा, दो-तीन साल की सजा हो जायेगी; फिर तो यों प्राण सूली पर न टँगे रहेंगे। कहीं डूब ही क्यों न मरूँ। इस तरह जीने से फायदा ही क्या। न घर का हूँ, न घाट का। दूसरों का भार तो क्या उठाऊँगा, अपने ही लिए दूसरों का मुँह ताकता हूँ। इस जीवन से किसका उपकार हो रहा है? धिक्कार है मेरे जीने को !
रमा ने निश्चय किया, कल निःशंक होकर काम की टोह में निकलूँगा। जो कुछ होना है, हो।
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अभी रमा हाथ-मुँह धो रहा था कि देवीदीन प्राइमर लेकर आ पहुँचा और बोला–भैया, यह तुम्हारी अँग्रेजी बड़ी विकट है। एस० आई० आर० ‘सर’ होता है, पी० आई० टी० ‘पिट’ क्यों हो जाता है? बी० यू० टी० ‘बट’ है; लेकिन पी० यू० टी० ‘पुट’ क्यों होता है? तुम्हें भी बड़ी कठिन लगती होगी।
रमा ने मुस्कराकर कहा–पहले तो कठिन लगती थी, पर अब तो आसान मालूम होती है।
देवी.–जिस दिन प्राइमर खत्म होगी, महाबीरजी को सवा सेर लड्डू चढ़ाऊँगा। पराई-मर का मतलब है, पराई स्त्री मर जाये। मैं कहता हूँ हमारी-मर। पराई के मरने से हमें क्या सुख ! तुम्हारे बाल-बच्चे तो हैं न भैया?
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