उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
यह कहकर देवीदीन ने ऊनी और रेशमी कपड़ों के सैकड़ों नमूने निकालकर रख दिये। पाँच-छः रुपये गज से कम का कोई कपड़ा न था।
रमा ने नमूनों को उलट-पलटकर देखा और बोला–इतने मँहगे कपड़े क्यों लाये दादा? और सस्ते न थे?
‘सस्ते थे, मुदा विलायती थे।’
‘तुम विलायती कपड़े नहीं पहनते?’
‘इधर बीस साल से तो नहीं लिये, उधर की बात नहीं कहता। कुछ बेसी दाम लग जाता है, पर रुपया तो देश ही में रह जाता है।’
रमा ने लजाते हुए कहा–तुम नियम के बड़े पक्के हो दादा !
देवीदीन की मुद्रा सहसा तेजवान हो गयी। उसकी बुझी हुई आँखें चमक उठी। देह की नसें तन गयीं। अकड़कर बोला–जिस देश में रहते हैं, जिसका अन्न-जल खाते हैं, उसके लिए इतना भी न करें तो जीने को धिक्कार है। दो जवान बेटे इसी सुदेसी की भेंट कर चुका हूँ, भैया ! ऐसे-ऐसे पट्ठे थे, कि तुमसे क्या कहें ! दोनों विदेशी कपड़ों की दुकान पर तैनात थे। क्या मजाल थी कि कोई ग्राहक दुकान पर आ जाय। हाथ जोड़कर, घिघियाकर, धमकाकर, लजवाकर सबको फेर लेते थे। बजाजे में सियार लोटने लगे। सबों ने जाकर कमिसनर से फरियाद की। सुनकर आग हो गया। बीस फौजी गोरे भेजे कि अभी जाकर बाजार से पहरे उठा दो। गोरों ने दोनो भाइयों से कहा–यहाँ से चले जाओ, मुदा वह अपनी जगह से जौ-भर न हिले। भीड़ लग गयी। गोरे उन पर घोड़े चढ़ा लाते थे; पर दोनों चट्टान की तरह डटे खड़े थे। आखिर जब इस तरह कुछ बस न चला तो सबों ने डण्डों से पीटना शुरू किया। दोनों वीर डंडे खाते थे, पर जगह से न हिलते थे। जब बड़ा भाई गिर पड़ा तो छोटा उसकी जगह पर आ खड़ा हुआ। अगर दोनों अपने डंडे सँभाल लेते तो भैया उन बीसों को मार भगाते; लेकिन हाथ उठाना तो बड़ी बात है, सिर तक न उठाया। अन्त में छोटा भी वहीं गिर पड़ा। दोनों को लोगों ने उठाकर अस्पताल भेजा। उसी रात को दोनों सिधार गये। तुम्हारे चरन छूकर कहता हूँ भैया, उस बखत ऐसा जान पड़ता था कि मेरी छाती गज-भर की हो गयी है, पाँव जमीन पर न पड़ते थे, यही उमँग आती थी कि भगवान ने औरों को पहले न उठा लिया होता, तो इस समय उन्हें भी भेज देता। जब अर्थी चली है, तो एक लाख आदमी साथ थे। बेटों को गंगा में सौंपकर मैं सीधे बजाजे पहुँचा और उसी जगह खड़ा हुआ, जहाँ दोनों वीरों की लहास गिरी थी। ग्राहक के नाम चिड़िये का पूत न दिखायी दिया। आठ दिन वहाँ से हिला तक नहीं। बस भोर के समय आध घण्टे के लिए घर जाता था और नहा-धोकर कुछ जलपान करके चला जाता था। नवें दिन दुकानदारों ने कसम खायी कि विलायती कपड़े अब न मँगावेंगे। तब पहरे उठा लिये गये। तब से बिदेसी दियासलाई तक घर में नहीं लाया।
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