उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
सामने उद्यान में चाँदनी कुहरे की चादर ओढ़े, जमीन पर पड़ी सिसक रही थी। फूल और पौधे मलिन मुख, सिर झुकाये, आशा और भय से विफल हो-होकर मानो उसके वक्ष पर हाथ रखते थे, उसकी शीतल देह को स्पर्श करते थे और आँसू की दो बूँदे गिराकर फिर उसी भाँति देखने लगते थे।
सहसा वकील साहब ने आँखें खोलीं। आँखों के दोनों कोनों में आँसू की बूँदे मचल रही थीं।
क्षीण स्वर में बोले–टीमल ! क्या सिद्धू आये थे?
फिर इस प्रश्न पर आप ही लज्जित हो मुस्कुराते हुए बोले–मुझे ऐसा मालूम हुआ, जैसे सिद्धू आये हों।
फिर गहरी साँस लेकर चुप हो गये, और आँखें बन्द कर लीं।
सिद्धू उस बेटे का नाम था, जो जवान होकर मर गया था। इस समय वकील साहब को बराबर उसी की याद आ रही थी। कभी उसका बालपन सामने आ जाता, कभी उसका मरना आगे दिखायी देने लगता–कितने स्पष्ट, कितने सजीव चित्र थे। उनकी स्मृति कभी इतनी मूर्तिमान, इतनी चित्रमय न थी।
कई मिनट के बाद उन्होंने फिर आँखें खोलीं और इधर-उधर खोयी हुई आँखों से देखा। उन्हें अभी ऐसा जान पड़ा था कि मेरी माता आकर पूछ रही हैं, ‘बेटा, तुम्हारा जी कैसा है?’
सहसा उन्होंने टीमल से कहा–यहाँ आओ। किसी वकील को बुला लाओ, जल्दी जाओ, नहीं वह घूमकर आती होंगी।
इतने में मोटर का हार्न सुनायी दिया और एक पल में रतन आ पहुँची। वकील को बुलाने की बात उड़ गयी।
वकील साहब ने प्रसन्न-मुख होकर पूछा–कहाँ-कहाँ गयीं? कुछ उनका पता मिला?
रतन ने उनके माथे पर हाथ रखते हुए कहा–कई जगह देखा। कहीं न दिखायी दिये। इतने बड़े शहर में सड़कों का पता तो जल्दी चलता नहीं, वह भला क्या मिलेंगे। दवा खाने का समय हो गया न?
वकील साहब ने दबी जवान से कहा–लाओ, खा लूँ।
रतन ने दवा निकाली और उन्हें उठाकर पिलायी। इस समय वह न जाने क्यों कुछ भयभीत-सी हो रही थी। एक अस्पष्ट, अज्ञात शंका उसके हृदय को दबाये हुए थी।
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