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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


एकाएक उसने कहा–उन लोगों में से किसी को तार दे दूँ?

वकील साहब ने प्रश्न की आँखों से देखा। फिर आप-ही-आप उसका आशय समझकर बोले–नहीं-नहीं, किसी को बुलाने की जरूरत नहीं। मैं अच्छा हो रहा हूँ।

फिर एक क्षण के बाद सावधान होने की चेष्टा करके बोले–मैं चाहता हूँ कि अपनी वसीयत लिखवा दूँ।

जैसे एक शीतल, तीव्र बाण रतन के पैर में घुसकर सिर से निकल गया। मानो उसकी देह के सारे बन्धन खुल गये, सारे अवयव बिखर गये, उसके मस्तिष्क के सारे परमाणु हवा में उड़ गये। मानो नीचे से धरती निकल गयी, ऊपर से आकाश निकल गया और अब वह निराधार, निस्पन्द, निर्जीव खड़ी है। अवरुद्ध, अश्रु-कंपित कंठ से बोली–घर से किसी को बुलाऊँ? यहाँ किससे सलाह ली जाय? कोई भी तो अपना नहीं है।

‘अपनों के लिए इस समय रतन अधीर हो रही थी। कोई भी तो अपना होता, जिस पर वह विश्वास कर सकती, जिससे सलाह ले सकती। घर के लोग आ जाते, तो दौड़-धूप करके किसी दूसरे डॉक्टर को बुलाते। वह अकेली क्या-क्या करे? आखिर भाई-बन्द और किस दिन काम आवेंगे। संकट में ही अपने काम आते हैं। फिर यह क्यों कहते हैं कि किसी को मत बुलाओ !

वसीयत की बात फिर उसे याद आ गयी ! यह विचार क्यों इनके मन में आया? वैद्यजी ने कुछ कहा तो नहीं? क्या होने वाला है भगवान ! यह शब्द अपने सारे संसर्गों के साथ उसके हृदय को विदीर्ण करने लगा। चिल्ला-चिल्लाकर रोने के लिए उसका मन विकल हो उठा। अपनी माता याद आयी। उसके अंचल में मुँह छिपाकर रोने की आकांक्षा उसके मन में उत्पन्न हुई। उस स्नेहमय अंचल में रोकर उसकी बाल-आत्मा को कितना संतोष होता था। कितनी जल्द उसकी सारी मनोव्यथा शान्त हो जाती थी। आह ! यह आधार भी अब नहीं।

महराज ने आकर कहा–सरकार, भोजन तैयार है। थाली परसूँ?

रतन ने उसकी ओर कठोर नेत्रों से देखा। वह बिना जवाब की अपेक्षा किये चुपके से चला गया।

मगर एक ही क्षण में रतन को महराज पर दया आ गयी। उसने कौन-सी बुराई की जो भोजन के लिए पूछने आया। भोजन भी ऐसी चीज है, जिसे कोई छोड़ सके ! वह रसोई में जाकर महराज से बोली–तुम लोग खा लो महराज ! मुझे आज भूख नहीं लगी है।

महराज ने आग्रह किया–दो ही फुलके खा लीजिए, सरकार।

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