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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रतन ठिठक गयी। महराज के आग्रह में इतनी सहृदयता, इतनी समवेदना भरी हुई थी कि रतन को एक प्रकार की सांत्वना का अनुभव हुआ। यहाँ कोई अपना नहीं है, यह सोचने में उसे अपनी भूल प्रतीत हुई। महराज ने अब तक रतन को कठोर स्वामिनी के रूप में देखा था। वही स्वामिनी आज उसके सामने खड़ी मानो सहानुभूति की भिक्षा माँग रही थी। उसकी सारी सद्वृत्तियाँ उमड़ उठीं। रतन को उसके दुर्बल मुख पर अनुराग का तेज नजर आया।

उसने पूछा–क्यों महराज, बाबूजी को इस कविराज की दवा से कोई लाभ हो रहा है?

महराज ने डरते-डरते वही शब्द दुहरा दिये, जो आज वकील साहब से कहे थे–कुछ-कुछ तो हो रहा है, लेकिन जितना होना चाहिए उतना नहीं।

रतन ने अविश्वास के अन्दाज से देखकर कहा–तुम भी मुझे धोखा देते हो महराज !

महराज की आँखें डबडबा गयीं। बोले–भगवान सब अच्छा ही करेंगे बहूजी, घबड़ाने से क्या होगा। अपना तो कोई बस नहीं है।

रतन ने पूछा–यहाँ कोई ज्योतिषी न मिलेगा? ज़रा उससे पूछते। कुछ पूजा-पाठ भी करा लेने से अच्छा होता है।

महराज ने तुष्टि के भाव से कहा–यह तो मैं पहले ही कहने वाला था बहूजी। लेकिन बाबूजी का मिजाज तो जानती हो। इन बातों से वह कितना बिगड़ते हैं।

रतन ने दृढ़ता से कहा–सवेरे किसी को जरूर बुला लाना।

‘सरकार चिढ़ेंगे !’

‘मैं जो कहती हूँ।’

यह कहती हुई वह कमरे में आयी और रोशनी के सामने बैठकर जालपा को पत्र लिखने लगी–

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