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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


‘बहन, नहीं कह सकती, क्या होने वाला है। आज मुझे मालूम हुआ कि मैं अब तक मीठे भ्रम में पड़ी हुई थी। बाबूजी अब तक मुझसे अपनी दशा छिपाते थे; मगर आज यह बात उनके काबू से बाहर हो गयी। तुमसे क्या कहूँ, आज वह वसीयत लिखने की चर्चा कर रहे थे। मैंने ही टाला। दिल घबड़ा रहा है बहन, जी चाहता है, थोड़ी सी संखिया खाकर सो रहूँ। विधाता को संसार दयालु, कृपालु, दीन-बन्धु और जाने कौन-कौन सी उपाधियाँ देता है। मैं कहती हूँ, उससे निर्दयी, निर्मम, निष्ठुर कोई शत्रु भी नहीं हो सकता। पूर्वजन्म का संस्कार केवल मन को समझाने की चीज है। जिस दण्ड के हेतु ही हमें न मालूम  हो, उस दण्ड का मूल्य ही क्या ! वह तो जबरदस्त लाठी है, जो आघात करने के लिए कोई कारण गढ़ लेती है। इस अँधेरे, निर्जन, काँटों से भरे जीवन-मार्ग में मुझे केवल एक टिमटिमाता हुआ दीपक मिला था। मैं उसे अँचल में छिपाये, विधि को धन्यवाद देती हुई, गाती चली जाती थी; पर वह दीपक भी मुझसे छिना जा रहा है। इस अन्धकार में मैं कहाँ जाऊँगी, कौन मेरा रोना सुनेगा, कौन मेरी बाँह पकड़ेगा?

‘बहन, मुझे माफ करना। मुझे बाबूजी का पता लगाने का अवकाश नहीं मिला। आज कई पार्कों का चक्कर लगा आयी; पर कहीं पता न चला। कुछ अवसर मिला तो फिर जाऊँगी।

‘माताजी को मेरा प्रणाम कहना।’

पत्र लिखकर रतन बरामदे में आयी। शीतल समीर के झोंके आ रहे थे। प्रकृति मानो रोग-शय्या पर पड़ी सिसक रही थी।

उसी वक्त वकील साहब की साँस वेग से चलने लगी।

[३०]

रात के तीन बज चुके थे। रतन आधी रात के बाद आरामकुर्सी पर लेट ही लेटे झपकियाँ ले रही थी कि सहसा वकील साहब के गले का खर्राटा सुनकर चौंक पड़ी। उलटी साँसें चल रही थीं। वह उनके सिरहाने चारपाई पर बैठ गयी और उनका सिर उठाकर अपनी जाँघ पर रख लिया। अभी न जाने कितनी रात बाकी है। मेज़ पर रखी हुई छोटी घड़ी की ओर देखा। अभी तीन बजे थे। सवेरा होने में चार घण्टे की देर थी। कविराज कहीं नौ बजे आवेंगे ! यह सोचकर वह हताश हो गयी। यह अभागिनी रात क्या अपना काला मुँह लेकर विदा न होगी ! मालूम होता है, एक युग हो गया !

कई मिनट के बाद वकील साहब की साँस रुकी। सारी देह पसीने में तर थी। हाथ से रतन को हट जाने का इशारा किया और तकिये पर सिर रखकर फिर आँखें बन्द कर लीं।

एकाएक उन्होंने क्षीण स्वर में कहा–रतन, अब बिदाई का समय आ गया। मेरे अपराध...।

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