उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
उन्होंने दोनों हाथ जोड़ लिये और उसकी ओर दीन याचना की आँखों से देखा। कुछ कहना चाहते थे, पर मुँह से आवाज न निकली।
रतन ने चीखकर कहा–टीमल, महराज, क्या दोनों मर गये?
महराज ने आकर कहा–मैं सोया थोड़ा ही था बहूजी, क्या बाबूजी...?
रतन ने डाँटकर कहा–बको मत, जाकर कविराज को बुला लाओ; कहना अभी चलिए।
महराज ने तुरन्त अपना पुराना ओवरकोट पहना, सोटा उठाया और चल दिया। रतन उठकर स्टोव जलाने लगी कि शायद सेंक से कुछ फायदा हो। उसकी सारी घबराहट, सारी दुर्बलता, सारा शोक मानो लुप्त हो गया। उसकी जगह एक प्रबल आत्मनिर्भरता का उदय हुआ। कठोर कर्तव्य ने उसके सारे अस्तित्व को सचेत कर दिया।
स्टोव जलाकर उसने रुई के गाले से छाती को सेंकना शुरू किया। कोई पन्द्रह मिनट तक ताबड़तोड़ सेंकने के बाद वकील साहब की साँस कुछ थमी। आवाज़ काबू में हुई। रतन के दोनों हाथ गालों पर रखकर बोले–तुम्हें बड़ी तकलीफ हो रही है मुन्नी ! क्या जानता था, इतनी जल्द यह समय आ जायेगा। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है प्रिये ! ओह कितना बड़ा अन्याय ! मन की सारी लालसा मन में रह गयी। मैंने तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया–क्षमा करना।
यही अन्तिम शब्द थे जो उनके मुख से निकले। यही जीवन का अन्तिम सूत्र था, यही मोह का अन्तिम बन्धन था।
रतन ने द्वार की ओर देखा। अभी तक महराज का पता न था। हाँ, टीमल खड़ा था–और सामने अथाह अन्धकार जैसे अपने जीवन की अंतिम वेदना से मूर्छित पड़ा था।
रतन ने कहा–टीमल, ज़रा पानी गरम करोगे?
टीमल ने वहीं खड़े-खड़े कहा–पानी गरम करके क्या करोगी बहूजी, गोदान कर दो। दो बूँद गंगाजल मुँह में डाल दो।
रतन ने पति की छाती पर हाथ रक्खा। छाती गरम थी। उसने फिर द्वार की ओर ताका। महराज न दिखायी दिये। वह अब भी सोच रही थी, कविराज जी आ जाते तो शायद इनकी हालत सँभल जाती। पछता रही थी कि इन्हें यहाँ क्यों लायी? कदाचित् रास्ते की तकलीफ और जलवायु ने बीमारी को असाध्य कर दिया। यह भी पछतावा हो रहा था कि मैं सन्ध्या समय क्यों घूमने चली गयी। शायद उतनी ही देर में इन्हें ठण्ड लग गयी। जीवन एक दीर्घ पश्चाताप के सिवा क्या है !
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