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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा भी जाँत पर जा बैठी और दोनों जाँत का यह गीत गाने लगीं।

मोहि जोगिन बनाके कहाँ गये रे जोगिया।

दोनों के स्वर मधुर थे। जाँत की घुमुर-घुमुर उनके स्वर के साज का काम कर रही थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जातीं, तो जाँत का स्वर मानो कंठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर हो जाता था। दोनों के हृदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनन्द से पूर्ण थे–न शोक का भार था, न वियोग का दुःख। जैसे दो चिड़ियाँ प्रभाव की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।

[३३]

रमानाथ की चाय की दुकान खुल तो गयी, पर केवल रात को खुलती थी। दिन भर बंद रहती थी। रात को भी अधिकतर देवीदीन ही दूकान पर बैठता था; पर बिक्री अच्छी हो जाती थी। पहले ही दिन तीन रुपये के पैसे आये; दूसरे दिन से चार-पाँच रुपये का औसत पड़ने लगा। चाय इतनी स्वादिष्ट होती थी कि जो एक बार यहाँ चाय पी लेता फिर दूसरी दुकान पर न जाता। रमा ने मनोरंजन की भी कुछ सामाग्री जमा कर दी। कुछ रुपये जमा हो गये, तो उसने एक सुन्दर मेज ली। चिराग जलने के बाद साग-भाजी की बिक्री ज्यादा न होती थी। वह उन टोकरों को उठाकर अन्दर रख देता और बरामदे में वह मेज़ लगा देता। उस पर ताश के सेट रख देता। दो दैनिक-पत्र भी मँगाने लगा। दुकान चल निकली। उन्हीं तीन-चार घण्टों में छः सात रुपये आ जाते थे और सब खर्च निकालकर तीन-चार रपये बच रहते थे।

इन चार महीनों की तपस्या ने रमा की भोग-लालसा को और भी प्रचण्ड कर दिया था। जब तक हाथ में रुपये न थे, वह मजबूर था। रुपये आते ही सैर-सपाटे की धुन सवार हो गयी। सिनेमा की भी याद आती थी। रोज़ के व्यवहार की मामूली चीजें जिन्हें अब तक वह टालता आता था, अब अबाध रूप से आने लगीं। देवीदीन के लिए वह एक सुन्दर रेशमी चादर लाया। जग्गो के सिर में पीड़ा होती रहती थी। एक दिन सुगन्धित तेल की दो शीशियाँ लाकर उसे दे दीं। दोनों निहाल हो गये। अब बुढ़िया कभी अपने सिर पर बोझ लाती तो उसे डाँटता, काकी, अब तो मैं भी चार पैसे कमाने लगा, अब तू क्यों जान देती है? अगर फिर कभी तेरे सिर पर टोकरी देखी तो कहे देता हूँ, दुकान उठाकर फेंक दूँगा। फिर मुझे जो चाहे सज़ा दे देना। बुढ़िया बेटे की डाँट सुनकर गद्गद हो जाती। मण्डी से बोझ लाती तो पहले चुपके से देखती, रमा दुकान पर तो नहीं है। अगर बैठा होता तो किसी कुली को एक-दो पैसा देकर उसके सिर पर रख देती। वह न होता तो लपकी हुई आती और जल्दी से बोझ उतारकर शान्त बैठ जाती, जिसमें रमा भाँप न सके।

एक दिन ‘मनोरमा थियेटर’ में राधेश्याम का कोई नया ड्रामा होने वाला था। इस ड्रामे की बड़ी धूम थी। एक दिन पहले से ही लोग अपनी जगहें रक्षित करा रहे थे। रमा को भी अपनी जगह रक्षित करा लेने की धुन सवार हुई। सोचा, कहीं रात को टिकट न मिला तो टापते रह जायँगे। तमाशे की बड़ी तारीफ है। उस वक्त एक के दो देने पर भी जगह न मिलेगी। इसी उत्सुक्ता ने पुलिस के भय को भी पीछे डाल दिया। ऐसी आफत नहीं आयी है कि घर से निकलते ही पुलिस पकड़ लेगी। दिन को न सही, रात को तो निकलता ही हूँ। पुलिस चाहती तो क्या रात को न पकड़ लेती? फिर मेरा वह हुलिया भी न रहा। पगड़ी चेहरा बदल देने के लिए काफी है। यों मन को समझाकर वह दस बजे घर से निकला। देवीदीन कहीं गया हुआ था। बुढ़िया ने पूछा–कहाँ जाते हो बेटा? रमा ने कहा–कहीं नहीं काकी, अभी आता हूँ।

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