उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा सड़क पर आया, तो उसका साहस हिम की भाँति पिघलने लगा। उसे पग-पग पर शंका होती थी, कोई कांस्टेबल न आ रहा हो। उसे विश्वास था कि पुलिस का एक-एक चौकीदार भी उसका हुलिया पहचानता है और उसके चेहरे पर निगाह पड़ते ही पहचान लेगा। इसलिए वह नीचे सिर झुकाये चल रहा था। सहसा उसे खयाल आया, गुप्त पुलिस वाले सादे कपड़े पहने इधर-उधर घूमा करते हैं। कौन जाने, जो आदमी मेरे बगल में आ रहा है, कोई जासूस ही हो। मेरी ओर कितने ध्यान से देख रहा है। यों सिर झुकाकर चलने से ही तो नहीं उसे सन्देह हो रहा है। यहाँ और सभी सामने ताक रहे हैं। कोई यों सिर झुकाकर नहीं चल रहा है। मोटरों की इस रेल-पेल में सिर झुकाकर चलना मौत को नेवता देना है। पार्क में कोई इस तरह चहलकदमी करे, तो कर सकता है। यहाँ तो सामने देखना चाहिए। लेकिन बगल वाला आदमी अभी तक मेरी ही तरफ ताक रहा है। है शायद कोई खूफिया हो। उसका साथ छोड़ने के लिए वह एक तँबोली की दुकान पर पान खाने लगा। वह आदमी आगे निकल गया। रमा ने आराम की साँस ली।
अब उसने सिर उठा लिया और दिल मजबूत करके चलने लगा। इस वक्त ट्राम का भी कहीं पता न था, नहीं उसी पर बैठ लेता। थोड़ी ही दूर चला होगा कि तीन कांस्टेबल आते दिखायी दिये। रमा ने सड़क छोड़ दी और पटरी पर चलने लगा। ख्वाहमख्वाह साँप के बिल में उँगली डालना कौन-सी बहादुरी है। दुर्भाग्य की बात, तीनों कांस्टेबलों ने भी सड़क छोड़कर वही पटरी ले ली। मोटरों के आने-जाने से बार-बार इधर-उधर दौड़ना पड़ता था। रमा का कलेजा धक-धक करने लगा। दूसरी पटरी पर जाना तो सन्देह को और भी बढ़ा देगा। कोई ऐसी गली भी नहीं जिसमें घुस जाऊँ। अब तो बहुत समीप आ गये। क्या बात है मेरी ही तरफ देख रहे है। मैंने बड़ी हिमाकत की कि यह पग्गड़ बाँध लिया और बँधी भी कितनी बेतुकी। एक टीले-सा ऊपर उठ गया है। यह पगड़ी आज मुझे पकड़ावेगी। बाँधी थी कि इससे सूरत बदल जायेगी। यह उलटे और तमाशा बन गयी। हाँ, तीनों मेरी ही ओर ताक रहे हैं। आपस में कुछ बातें भी कर रहे हैं। रमा को ऐसा जान पड़ा, पैरों में शक्ति नहीं है। शायद सब मन में मेरा हुलिया मिला रहे हैं। अब नहीं बच सकता। घर वालों को मेरे पकड़े जाने की खबर मिलेगी, तो कितने लज्जित होंगे। जालपा तो रो-रोकर प्राण ही दे देगी। पाँच साल से कम सजा न होगी। आज इस जीवन का अन्त हो रहा है।
इस कल्पना ने उसके ऊपर कुछ ऐसा आतंक जमाया कि उसके औसान जाते रहे। जब सिपाहियों का दल समीप आ गया, तो उसका चेहरा भय से कुछ ऐसा विकृत हो गया, उसकी आँखें कुछ ऐसी सशंक हो गयीं और अपने को उनकी आँखों से बचाने के लिए वह कुछ इस तरह दूसरे आदमियों की आड़ खोजने लगा कि मामूली आदमी को भी उस पर सन्देह होना स्वाभाविक था, फिर पुलिस वालों की मँजी हुई आँखें क्या चूकतीं। एक ने अपने साथी से कहा–यो मनई चोर न होय, तो तुमरी टाँगन ते निकर जाई। कस चोरन की नाई ताकत है। दूसरा बोला–कुछ सन्देह तो हमऊ का हुय रहा है। फुरै कहयो पाँडे असली चोर है।
तीसरा आदमी मुसलमान था, उसने रमानाथ को ललकारा–ओ जी ओ पगड़ी, जरा इधर आना, तुम्हारा क्या नाम है?
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