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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


तीनों कांस्टेबल देवीदीन से परिचित थे। रुक गये। एक ने कहा–तुम्हारे मिहमान हैं यह, कब से?

देवीदीन ने मन में हिसाब लगाकर कहा–चार महीने से कुछ बेशी हुए होंगे। मुझे प्रयाग में मिल गये थे। रहने वाले भी वहीं के हैं। मेरे साथ ही तो आये थे।

मुसलमान सिपाही ने मन में प्रसन्न होकर कहा–इनका क्या नाम है?

देवीदीन ने सिटपिटाकर कहा–नाम इन्होंने बताया न होगा?

सिपाहियों का सन्देह दृढ़ हो गया। पांडे ने आँखें निकाल कर कहा–जान परत है तुमहू मिले हौ, नाँव काहे नहीं बतावत हौ इनका?

देवीदीन ने आधारहीन साहस के भाव से कहा–मुझसे रोब न जमाना पाँडे, समझे ! यहाँ धमकियों में नहीं आने के।

मुसलमान सिपाही ने मानो मध्यस्थ बनकर कहा–बूढ़े बाबा, तुम तो ख्वाहमख्वाह बिगड़ रहे हो। इनका नाम क्यों नहीं बतला देते?

देवीदीन ने कातर नेत्रों से रमा की ओर देखकर कहा–हम लोग तो रमानाथ कहते हैं। असली नाम यही है या कुछ और, यह हम नहीं जानते।

पाँडे ने आँखें निकालकर कहा हथेली को सामने करके कहा–बोलो पण्डितजी, क्या नाम है तुम्हारा? रमानाथ या हीरालाल? या दोनों–एक घर का, एक ससुराल का।

तीसरे सिपाही ने दर्शकों को सम्बोधित करके कहा–नाव है रमानाथ, बतावत है हीरालाल। सबूत हुए गवा। दर्शकों में कानाफूसी होने लगी। शुबहे की बात तो है।

‘साफ है, नाम और पता दोनों गलत बता दिया।’

एक मारवाणी साहब ने कहा–उचक्को सो है। एक मौलवी साहब ने कहा–कोई इश्तिहारी मुलजिम है।

जनता को अपने साथ देखकर सिपाहियों को और भी जोर हो गया। रमा को भी अब उनके साथ चुपचाप चले जाने ही में अपनी कुशल दिखायी दी। इस तरह सिर झुका लिया, मानो उसे इसकी बिल्कुल परवाह नहीं है कि उस पर लाठी पड़ती है या तलवार। इतना अपमानित वह कभी न हुआ था। जेल की कठोरतम यातना भी इतनी ग्लानि न उत्पन्न करती।

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